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सदाऽऽत्मत्वाविशेषतः ।
केवलस्यात्मनो न्यायात् संसारी मुक्त इत्यतेद् द्वितयं कल्पनैव हि 11
योग : असंकीर्ण साधना पथ | ८३
यदि एक मात्र आत्मा का ही अस्तित्व स्वीकार किया जाए, पुद्गल आदि अन्य पदार्थों का नहीं तो वह (आत्मा) सदा एकान्ततः अपने आत्मत्वरूप गुण में संप्रतिष्ठ रहेगी। वैसी स्थिति में आत्मा के संसारी तथा मुक्त - यों भेद करना कल्पना मात्र है । वस्तुत: यह घटित नहीं होता ।
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काञ्चनत्वाविशेषेऽपि यथा
सत्काञ्चनस्य न ।
शुद्ध यशुद्धी ऋते शब्दात् तद्वदत्राप्यसंशयम्
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सर्वथा शुद्ध - अन्य धातुओं से अमिश्रित स्वर्ण के सम्बन्ध में शुद्धता अशुद्धता का कथन घटित नहीं होता । पर सामान्य — अन्य धातु-मिश्रित स्वर्ण के प्रसंग में शुद्धि, अशुद्धि की जो बात कही जाती है, वह निरर्थक नहीं होती । यही तथ्य आत्मा के साथ है । आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था शुद्ध स्वर्ण जैसी है और संसारावस्था अन्य धातु-मिश्रित स्वर्ण जैसी । वहाँ ( संसारावस्था में ) शुद्धि, अशुद्धिमूलक कथन निःसन्देह संगत है ।
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योग्यतामन्तरेणास्य
सा च तत्तत्त्वमित्येवं
संयोगोऽपि न युज्यते । तत्संयोगोऽप्यनादिमान् विरोधोऽस्यान्यथा
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योग्यतायास्तथात्वेन
अतीतकाल साधर्म्यात् किं त्वाज्ञातोऽयमीदृशः
पुद्गलों को आकृष्ट करना, उनसे सम्बद्ध होना आत्मा की योग्यता है । ऐसा न हो तो आत्मा और पुद्गल का संयोग घटित नहीं होता । आत्मा अनादि है अतः यह योग्यता तथा संयोग भी अनादि हैं ।
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आत्मा द्वारा प्रति समय कर्म ग्रहण - कर्म - पुद्गल - संयोग की प्रक्रिया देखते इसे अनादि कैसे मानें, इसका समाधान भूतकाल के उदाहरण से लेना चाहिए | वर्तमान, भूत, भविष्य - ये तीन काल हैं । अनागत- भविष्य जब
पुनः ।
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