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कुलयोगी आदि का स्वरूप | ७६ विरह की इच्छा करने वाले के रूप में ख्यापित किया है। सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् एवं लेखक मुनि श्रीकल्याण विजयजी ने धर्मसंग्रहणी की प्रस्तावना में आचार्य हरिभद्र रचित उन-उन ग्रन्थों की प्रशस्तियों को उद्धृत किया है; जिनमें उनके नाम के साथ ‘भवविरह' या 'विरह' शब्द का प्रयोग हुआ है । वे ग्रन्थ इस इस प्रकार है:
___ अष्टक, धर्मबिन्दु, ललितविस्तरा, पंचवस्तुटीका, शास्त्रवार्ता समुच्चय, योगदृष्टि समुच्चय, षोडशक, अनेकान्तजयपताका, योगबिन्दु, संसारदावानलस्तुति, धर्मसंग्रहणी, उपदेशपद, पंचाशक तथा सम्बोधप्रकरण ।
आचार्य हरिभद्र का यह नाम इतना प्रसिद्ध होगया कि उनके समकालीन व पश्चाद्वर्ती अनेक लेखकों ने जहाँ उनकी चर्चा की है। उनके नाम के साथ 'भवविरह' या 'विरह' शब्द का भी प्रयोग किया है । कहावलीकार भद्रेश्वर ने अपनी कृति में उनकी 'भवविरह सूरि' के नाम से बार-बार चर्चा की है। कुवलयमाला में उद्योतन सूरि ने 'भवविरह' विशेषण के साथ आचार्य हरिभद्र को सादर स्मरण किया है।
आचार्य हरिभद्र का 'भवविरह' उपनाम क्यों पड़ा, इस सम्बन्ध में कई प्रकार के कथानक प्रचलित हैं।
____ कहावली में उल्लेख है कि जब याकिनी महत्तरा हरिभद्र को अपने गुरु जिनदत्तसूरि के पास ले गई, तब वहाँ वार्तालाप के मध्य एक ऐसा प्रसंग बना कि हरिभद्र ने 'भवविरह' शब्द को स्वायत्त कर लिया। बात यों हुई-आचार्य जिनदत्तसूरि ने उन्हें 'चक्किदुगं'...........' आदि गाथा का अर्थ बता दिया और साथ ही साथ उन्हें कहा कि तुम याकिनी के धर्मपुत्र हो । इस पर हरिभद्र ने आचार्य से धर्म की जिज्ञासा की, उसका फल. पूछा। श्री जिनदत्तसूरि ने बताया कि धर्म की आराधना सकाम और निष्काम दोनों प्रकार से की जाती है । सकाम धर्म से स्वर्ग, लौकिक ऐश्वर्य, प्रभुता आदि प्राप्त होते हैं तथा निष्काम धर्म से भव-विरह. संसार से विरह, १. चक्कि दुगं हरिपणगं पणग चक्कीण केसवो चक्की । केसव-चक्की केसव दुचक्की केसी 'अ चक्की अ॥
-आवश्यकनियुक्ति गाथा ४२१
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