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.७८ | योगदृष्टि समुच्चय
आदि गुणों से युक्त हैं, जिन्होंने इस ग्रन्थ का श्रवण किया है, इसे हृदयंगम किया है, ऐसे सूयोग्य, विधिसम्पन्न अधीत वक्ताओं को यह शास्त्र अपने श्रेयस्-आत्मकल्याण के पथ में आने वाले विघ्नों की अत्यन्त शान्ति हेतु सुयोग्य–योग के जिज्ञासु-योगशास्त्र को जानने तथा सुनने की तीव्र उत्कण्ठायुक्त विनीत पुरुषों को मात्सर्य - ईर्ष्या भाव बिना देना चाहिए।
उपदेष्टाओं के मन में ऐसा भाव आना भी संभव है कि जिनको शास्त्र-ज्ञान दे रहे हैं, वे विद्वत्ता में उनसे कहीं बढ़ न जाएँ। इसे मात्सर्य कहा जाता है। ऐसा भाव आने पर उपदेष्टा -शिक्षक उन्मुक्त मन से ज्ञान-दान नहीं कर सकते । आचार्य का आशय यह है कि उपदेष्टाओं के मन में ऐसा भाव नहीं आना चाहिए। उनके मन में तो यही पवित्र भावना रहे कि आत्मकल्याण हेतु वे ऐसा कर रहे हैं।
ज्ञानी उपदेष्टा ऐसा भाव भी मन में नहीं लाते कि श्रोताओं या अध्येताओं का वे उपकार कर रहे हैं । श्रोताओं या अध्येताओं का उपकार तो होता ही है पर उस ओर भी महान् उपदेष्टाओं का चिन्तन नहीं जाता। ऐसा सोचना भी उन्हें अहंकार लगता है ।
आचार्य ने २२५वें श्लोक में योग्यजनों को यह शास्त्र सुनने का अनुरोध करने का निषेध किया है, यहाँ योग्यजनों को शास्त्र देने की बात कही है । ऊपर से देखने पर यह परस्पर विरोध जैसा प्रतीत होता है पर वस्तुतः वैसी बात नहीं है । दोनों स्थानों पर आये योग्य शब्द भिन्न-भिन्न अर्थों के द्योतक हैं। २२५वें श्लोक में, जैसा वहाँ व्याख्यात हुआ है, योग्य शब्द कुलयोगियों तथा प्रवृत्तचक्रयोगियों के लिए, जो योग की उत्तम अवस्था प्राप्त किये होते हैं, जिनकी संस्कारवत्ता तथा साधनास्तर ऊँचा होता है, आया है । प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त योग्य शब्द उन साधनोद्यत पुरुषों के लिए जो योग्यता में उस कोटि में नहीं आते, सामान्य होते हैं, पर योग के सन्दर्भ में तीव जिज्ञासा तथा उत्कट शुश्रूषा लिये होते हैं, आया है । वे इसके श्रवण, अध्ययन के अधिकारी हैं। . . .
प्रस्तुत श्लोक के तृतीय चरण के ‘मात्सर्य-विरहेणोच्चैः' पद में जो विरह शब्द आया है, उसके सम्बन्ध में कुछ ज्ञाप्य है:
___ आचार्य हरिभद्र अपने नाम के साथ 'भवविरह' या 'विरह' विशेषण का प्रयोग करते हैं । उन्होंने अपनी अनेक कृतियों में अपने आपको भव
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