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८० | योगदृष्टि समुच्चय
जन्म-मरण से छुटकारा, मोक्ष प्राप्त होता है। इस पर हरिभद्र ने कहा कि मुझे तो भगवन् ! भवविरह ही प्रिय लगता है अर्थात् मैं तो मोक्ष ही पसन्द करता हूँ। अस्तु हरिभद्र ने वैराग्यपूर्वक जिनदत्तसूरि के पास जैन दीक्षा स्वीकार करली । उनके दीक्षा-ग्रहण करने का उद्देश्य भव-विरह, सांसारिक आवागमन से छूटना या मुक्त होना था। अतः उन्होंने अपने लिए यह (भवविरह) उपनाम उत्साहपूर्वक स्वीकार कर लिया ।
आचार्य हरिभद्र का 'भवविरह' नाम पड़ने के सम्बन्ध में एक घटना यह भी मानी जाती है कि कोई भक्त श्रावक जब आचार्य हरिभद्र के पास आकर उन्हें वन्दन-प्रणमन करता तो वे उसके लिए श्वेताम्बर समाज में प्रचलित आशीर्वाद-पद्धति के स्थान पर 'भवविरह' का प्रयोग किया करते थे । इसका आशय यह था कि हे भव्य मुमुक्षु ! तुम्हारा भवभ्रमण रूप संसार से विरह-छुटकारा हो । आशीर्वाद पाने वाला व्यक्ति उन्हें भवविरहसूरि ! आप दीर्घायु हों, ऐसा उत्तर में कहता।
कहावली में इसका और अधिक विस्तार करते हुए लिखा गया है । उसके अनुसार लल्लिग नामक एक व्यापारी गृहस्थ था, जो आचार्य हरिभद्र के प्रति बहुत आदर एवं श्रद्धा रखता था । मूलतः वह निर्धन था पर क्रमशः उसका धन बढ़ता गया। वह सम्पत्तिशाली हो गया । तब वह खुले हाथों दान देने लगा। वह साधुओं की भिक्षा के समय हमेशा शंख बजाता ताकि जो भी भूखे-प्यासे होते, वहाँ आ जाते । शंख इसी का सूचक था । वह उन्हें. भोजन कराता। इसका अभिप्राय यह है कि लल्लिग के मन में आतिथ्य एवं करुणा का विशेष भाव था, इसलिए वह सोचता कि साधुओं को वह भिक्षा देता है, यह तो उसका विशेष कर्तव्य है ही पर गांव के पास से भी कोई भूखा-प्यासा न गुजर जाए, एक गृहस्थ के नाते यह भी उसका धर्म है । भोजनशाला में भोजन करने के पश्चात् वे लोग आचार्य हरिभद्र को नमस्कार करने आते। आचार्य उन्हें "तुम भव-विरह प्राप्त करो" अर्थात् तुम मोक्षोन्मुख बनो, ऐसा आशीर्वाद देते । समागत जन आचार्य को "भवविरह सूरि ! आप दीर्घ काल तक जीवित रहें" यों कहकर चले जाते । इस प्रकार उनका 'भवविरह सूरि' नाम विख्यात हो गया।
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