SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्पादकीय ऊर्ध्वगमन आत्मा का सहज स्वभाव है, क्योंकि आत्मा वस्तुतः परमात्मा का ही आवृत या आच्छन्न रूप है, वेदान्त की भाषा में जिसे अविद्या, माया तथा आर्हत दर्शन की भाषा में कर्मावरण से आप्लुत कहा गया है । अविद्या, माया अथवा कर्मों के आवरण का अपगम आत्मा के शुद्ध स्वरूप या परमात्म-भाव की अभिव्यक्ति का हेतु है । दूसरे शब्दों में जीव अपने अपरिसीम पुरुषार्थ द्वारा अपने यथार्थ रूप-परमात्मभाव को उद्घाटित, व्यक्त या अधिगत करने में समर्थ हो जाता है । बहिरात्मभाव से अन्तरात्मभाव की ओर गति करता हुआ जिस दिन वह परमात्मभाव में लोन हो जाता है, निःसन्देह उसके लिए वह एक स्वर्णिम दिन या परम सौभाग्य की वेला होती है। सूफी संतों ने आत्मा के परमात्मभाव अधिगत करने के प्रेमात्मक उपक्रमतीव्रतम उत्कण्ठा को आशिक और माशूका के रूपक द्वारा व्याख्यात किया है ! कबीर आदि निर्गुणमार्गी सन्तों ने अपने को राम की बहुरिया बताते हुए इसी आध्यात्मिक प्रेम को अपने ढंग से प्रस्तुत किया है । वास्तव में भारत ही वह देश है, जहाँ जीवन के इस गहनतम विषय पर विविध रूप में चिन्तन की धाराएँ प्रवाहित हैं । यहाँ की प्रज्ञा ने केवल भौतिक किंवा मांसल उपलब्धि में ही जीवन की सार्थकता नहीं मानी । इतना ही नहीं, इस ओर के उद्वेग को उसने दुर्बलता तक कहा । आत्मा को इस ऊर्ध्वगामिता के केन्द्र में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान चित्त का है । चित्त की वृत्तियाँ ही मनुष्य को न जाने कहाँ से कहाँ भटका देती हैं । इसलिए ऊर्ध्वगमन की यात्रा में चित्तवृत्तियों की उच्छृंखलता को नियन्त्रित करना आवश्यक होता है, योग की भाषा में जिसे चित्तवृत्ति निरोध कहा गया है । निरोध शब्द यहाँ विशेषतः एकाग्रता के अर्थ में है । विधायक और निषेधक दोनों पक्ष इसमें समाविष्ट हैं। परिष्कार और परिमार्जन, संशोधन और विशोधन के माध्यम से यह निरोध की आन्तरिक चेतनामयी गति चरमोत्कर्ष प्राप्त करती है । भारत का यह सौभाग्य है कि यहाँ की रत्नगर्भा वसुन्धरा ने चिन्तकों, मनी - षियों और ऋषियों तथा ज्ञानियों के रूप में ऐसे-ऐसे नर-रत्न जगत् को दिये, जिनके ज्ञान, चिन्तन एवं अनुभूति की अप्रतिम आभा से मानव जाति ने अन्तर्जागृति के रूप में एक अभिनव आलोक प्राप्त किया । सामष्टिक रूप में हम इस सारी परम्परा को योग या अध्यात्म-योग के नाम से अभिहित कर सकते हैं । वास्तव में योग का क्षेत्र योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । Jain Education International For Private & Personal Use Only - पातंजल योगसूत्र १ २ www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy