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________________ ( १२ ) बड़ा व्यापक है । साम्प्रदायिक संकीर्णता से यह निश्चय ही अछूता है । योग की दीप्ति सममुच धूमिल हो जाती है, जब हम उसे साम्प्रदायिकता में बाँध लेते हैं । हाँ, विधिक्रम, साधना पद्धति आदि में विविधता हो सकती है, जो साम्प्रदायिकता नहीं है । वह तो यौगिक तत्त्वों की विराटता की द्योतक है । भारत के आध्यात्मिक क्षेत्र का इतिहास इसका साक्ष्य है कि समय-समय पर हमारी इस भूमि में अनेक योगी उत्पन्न हुए, जिन्होंने अपनी शक्ति और अनुभूति द्वारा जगत को बहुत दिया । वैदिक परम्परा के महर्षि पतंजलि, व्यास, गोरक्ष तथा श्रमणपरम्परा के आचार्य हरिभद्र, नागार्जुन, सरोजवज्र, शुभचन्द्र, हेमचन्द्र, योगीन्दु आदि के नाम बड़े आदर से लिये जा सकते हैं, जिनका साहित्य अत्यन्त प्रेरक एवं उद्बोधक है । वे केवल शब्द - शिल्पी ही नहीं थे, वरन् कर्म-शिल्पी तथा भाव-शिल्पी भी थे इसलिए उन्होंने जो कुछ लिखा, अनुभूतियों की अतल गहराइयों में डुबकियाँ लगाकर लिखा, भारतीय वाङ् मय की वह एक ऐसी अमूल्य निधि है, जो कभी पुरानी या अनुपयोगी नहीं हो सकती । विवेकपूर्वक इस साहित्य का अध्ययन किया जाना चाहिए । 1 मानव स्वभावतः नवीनता प्रेमी है। समय-समय पर विविध नवीनताओं के प्रवाह में 'बहता रहता है, आज की भाषा में जिसे फैशन कहा जा सकता है । पाठक अन्यथा न मानें, आज योग भी कुछ ऐसी ही स्थिति में से गुजर रहा है । योग ( के बाह्य अंगों ) का एक वेत्ता, अभ्यासी, शिक्षक, जन-साधारण को आश्चर्य लगने वाले कठिन आंगिक उपक्रम दिखाने में, सूक्ष्म प्राणायाम के विधि-विधानों में निष्णात एक योगी - शब्द - वाच्य पुरुष यदि अत्यन्त दुर्बल चित्तवृत्ति का पाया जाए, बाहर से सधते से लगने वाले योग के साथ जिसके भीतर भोग की दुर्दम ज्वाला जलती रहे, क्या वहाँ योग सधता है ? कदापि नहीं । दुःख है, आज हमारे देश में यत्र-तत्र ऐसी परिस्थितियाँ भी पोषण पा रही हैं। योग की परम्परा पर निश्चय ही ये वे काले धब्बे हैं, जिनके संयोजक एक पवित्र परम्परा के साथ कितना जघन्य खिलवाड़ कर कर रहे हैं, कुछ कहने-सुनने की बात नहीं । अभ्यास के कारण देह द्वारा कुछ अद्भुत करिश्मे दिखा देना योग नहीं है । वैसे तो पेट पालने के प्रयत्न में बहुत से नट व मदारी भी करते रहते हैं । योग तो आन्तर साम्राज्य पर अधिकार पाने का वह पवित्र राजपथ है, जहाँ से अन्तर्विकार दस्युओं और तस्करों की तरह भाग जाते हैं । पर यह सधता तब है, जब हमारा विवेक का नेत्र उद्बुद्ध हो । हम केवल अयथावत् परंपरित रूढ़ि के रूप में इसका शिक्षण प्राप्त न कर सम्यक् बोध, विवेक तथा तदनुरूप लक्ष्य को आत्मसात् करते हुए इस में अग्रसर हों । आज तो स्थिति यह हो गई है कि मूल लक्ष्य गौण हो गया है और साधनों ने प्रधानता ले ली है । आसन, प्राणायाम आदि बाह्य योगांगों को अनुपादेय नहीं माना जा सकता किन्तु उनकी सही उपयोगिता सध पाये, उसके लिए सही मनोभूमि के निर्माण की आवश्यकता है । उसकी पूर्ति के साथ हमारा अध्यवसाय गतिमान् हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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