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७२ | योगदृष्टि समुच्चय
शम का सार-फल यम है। यों यम और शम-दोनों अन्योन्याश्रित सिद्ध होते हैं।
[ २१७ ] विपक्षचिन्तारहितं यमपालनमेव तत् ।
तत्स्थैर्यमिह विज्ञयं तृतीयो यम एव हि ॥
प्रवृत्तियम के अन्तर्गत साधक अहिंसा आदि के परिपालन में प्रवृत्त तो हो जाता है किन्तु अतिचार, दोष, विघ्न आदि का भय बना रहता है। स्थिरयम में वैसा नहीं होता । साधक के अन्तर्मन में इतनी स्थिरता व्याप्त हो जाती है कि वह विपक्ष-अतिचाररूप कण्टक-विघ्न, हिंसादिरूप ज्वरविघ्न तथा मतिमोह या मिथ्यात्वरूप दिङमोह-विघ्न आदि की चिन्ता से रहित हो जाता है । ये तथा दूसरे विघ्न, दोष आदि उसके मार्ग में अवरोध उत्पन्न नहीं कर पाते ।
[ २१८ ] परार्थसाधकं त्वेतसिद्धिः शुद्धान्तरात्मनः ।
अचिन्त्यशक्तियोगेन चतुर्थो यम एव तु॥
शुद्ध अन्तरात्मा की अचिन्त्य शक्ति के योग से परार्थ-साधक-दूसरों का उपकार साधने वाला यम सिद्धियम है।
जीवन में क्रमशः उत्तरोत्तर विकास पाते अहिंसा आदि यम इतनी उत्कृष्ट कोटि में पहुंच जाते हैं कि साधक में अपने आप एक दिव्य शक्ति का उद्रेक हो जाता है। उसके व्यक्तित्व में एक ऐसी दिव्यता आविर्भूत हो जाती है कि उसके कुछ बोले बिना, किये बिना केवल उसकी सन्निधिमात्र से उपस्थित प्राणियों पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वे स्वयं बदल जाते हैं, उनकी दुर्वृत्ति छूट जाती है।
यमों के सिद्ध हो जाने से दृष्ट फलित क्या क्या होते हैं, महर्षि पतंजलि ने इस सम्बन्ध में अपने योगसूत्र में विशद चर्चा की है । उदाहरणार्थ अहिंसा यम के सिद्ध हो जाने पर उनके अनुसार अहिंसक योगी के यहाँ
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