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कुलयोगी आदि का स्वरूप | ७१
अस्तेय
६. इच्छा-अस्तेय, १०. प्रवृत्ति-अस्तेय,
११. स्थिर-अस्तेय, १२. सिद्धि-अस्तेय । ब्रह्मचर्य
१३. इच्छा-ब्रह्मचर्य, १४. प्रवृत्ति-ब्रह्मचर्य,
१५. स्थिर-ब्रह्मचर्य, १६ सिद्धि-ब्रह्मचर्य । अपरिग्रह
१७ इच्छा-अपरिग्रह, १८. प्रवृत्ति-अपरिग्रह, १६. स्थिर-अपरिग्रह, २०. सिद्धि-अपरिग्रह ।
[ २१५ ] तद्वत्कथाप्रीतियुता तथाऽविपरिणामिनी ।
यमेष्विच्छाऽवसेयेह प्रथमो यम एव तु॥
यमों के प्रति आन्तरिक इच्छा, अभिरुचि, स्पृहा, आकांक्षा, जो यमाराधक सत्पुरुषों की कथा में प्रीति लिए रहती हैं, जिसमें इतनी स्थिरता होती है कि जो कभी विपरिणत नहीं होती- अनिच्छारूप में परिणत नहीं होती-पहला इच्छायम है ।
[ २१६ ] सर्वत्र शमसारं तु यमपालनमेव यत् । प्रवृत्तिरिह विज्ञ या द्वितीयो यम एव तत् ॥
इच्छायम द्वारा अहिंसा आदि में उत्कण्ठा जागरित होती है, अन्तरात्मा में उन्हें स्वायत्त करने की तीव्र भावना उत्पन्न होती है। फलतः साधक जीवन में उन्हें (अहिंसा आदि यमों को) क्रियान्वित करता है, प्रवृत्ति में स्वीकार करता है उनमें प्रवृत्त होता है, वह प्रवृत्ति-यम है।
यम-पालन का सार शम है अर्थात् यम-पालन से जीवन में शमप्रशान्तभाव, शान्ति का उद्रेक होता है । अथवा जीवन में शम का समावेश होने पर यम प्रतिफलित होता है । दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है,
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