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________________ कुलयोगी आदि का स्वरूप | ७३ वातावरण में अहिंसा इतनी व्याप्त हो जाती है कि जन्म से परस्पर वैर रखने वाले प्राणी भी वहाँ स्वयं आपस का वैर' छोड़ देते हैं। [ २१६ ] सद्भिः कल्याणसम्पन्नदर्शनादपि पावनैः । तथा दर्शनतो योग आद्यावंचक उच्यते ॥ कल्याणसम्पन्न विशिष्ट पुण्यशाली सत्पुरुषों के, जिनका दर्शन पावनता लिये है-जिनके दर्शन मात्र से दर्शकों के मन में पवित्रता का संचार होता है, आत्मा में संस्फूति उत्पन्न होती है अत्यन्त निर्दोष, निविकार, आत्मगुणोपेत स्वरूप की पहचान कर, (उनके) साथ योग या सम्बन्ध होना आद्यावंचक (आद्य-अवंचक)-योगावंचक कहा जाता है। ऐसे सत्पुरुष के, सद्गुरु के योग से साधक के जीवन में एक क्रान्ति आती है । जीवन की दिशा बदल जाती है, संसारलक्षिता स्वरूपलक्षिता की ओर मोड़ ले लेती है। इससे पूर्व साधक वंचक-योग में उलझा था। सदगुरु के योग के बिना उसके समग्र योगसाधन वंचक थे। वह उनसे ठगा जा रहा था । सद्गुरु का योग, सद्गुरु की प्राप्ति, उनकी सन्निधि से प्राप्त होती प्रेरणा सचमुच साधना-पथ पर आगे बढ़ते साधक के लिए एक प्रकाशस्तंभ है । साधक अपनी मंजिल की ओर सोत्साह आगे बढ़ता जाता है। इसे आद्य-अवंचक कहा है। इसे प्राप्त न करने तक साधक प्रवंचना में उलझा रहता है, आगे बढ़ नहीं पाता । आगे बढ़ने का यह आद्य-प्रथम सोपान है। [ २२० ] तेषामेव प्रणामादिक्रियानियम इत्यलम् । क्रियावंचकयोगः स्यान्महापापक्षयोदयः ॥ उन सत्पुरुषों, सद्गुरुओं, भावसाधुओं का दर्शन, प्रणमन, स्तवन, कीर्तन, वैयावृत्त्य, सेवा आदि क्रिया करना क्रियावंचक योग कहा जाता है। यह महापापों का क्षय करने वाला है। १. अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः । -पातंजल योगसूत्र २.३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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