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६४ ] योगदृष्टि समुच्चय
उक्त दो अवस्थाओं के न होने पर आत्मा को संसारी और मुक्त कहना निरर्थक होगा। अतः आत्मा का स्वभावोपमर्द-अवस्था से अवस्थान्तर, भाव से भावान्तर, परिणाम से परिणामान्तर आदि न्यायपूर्वक तात्त्विक-पारमार्थिक या यथार्थ मानें । ऐसा होने से ही आत्मा की संसारावस्था, मुक्तावस्था आदि स्थितियाँ घटित हो सकती हैं।
[ २०० ] दिहक्षाद्यात्मभूतं तन्मुख्यमस्य निवर्तते । प्रधानादिनतेर्हेतुस्तदभावान्न
तन्नतिः॥ दिदृक्षा-देखने की इच्छा, अविद्या-आत्मस्वरूप का अज्ञान, - राग, द्वेष, मोह आदि आन्तरिक मालिन्य, भवाधिकार-संसारोन्मुख भाव की प्रबलता आदि आत्मभूत हैं-आत्मा के अंगभूत भाव हैं, वास्तविक सत्ता लिये हुए हैं, काल्पनिक नहीं हैं । आत्मा के साथ जुड़े होने से वे औपचारिक नहीं वरन् मुख्य हैं। वे जब तक निवृत्त नहीं होते-आत्मा से हटते नहीं, तब तक वे प्रधान-जड़ प्रकृति आदि के परिणमन के निमित्त बनतेहैं। तब तक संसारभाव-सांसारिक सलग्नता बनी रहती है। दिदृशा आदि भाषों का जब अभाव हो जाता है तो आत्मा के प्रकृत्यनुरूप परिणमन का अभाव हो जाता है, मुक्तभाव प्राप्त हो जाता है। आत्मा का परिणामित्व इससे सिद्ध होता है ।
[ २०१ ] अन्यथा स्यादियं नित्यमेषा च भव उच्यते । एवं च भवनित्यत्वे कथं मुक्तस्य सम्भवः ॥
यदि उक्त कथन-दिदशा आदि के कारण प्रधान आदि की परिणति न मानी जाए, तो वह (प्रधान आदि की परिणति) नित्य घटित होती है । इसे (परिणति को) भव या संसार कहा जाता है। प्रधान आदि की परिणति को जब नित्य माना जायेगा तो संसार भी नित्य होगा। वैसी स्थिति में मुक्त की--संसार-बन्धन से छूटे हुए--मोक्ष प्राप्त जीव की संभावना कैसे. की जा सकती है ? अर्थात् वैसा नहीं सधता ।
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