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मुक्ततत्त्वमीमांसा | ६३ [ १९६ ] स क्षणस्थितिधर्मा चेद् द्वितीयादिक्षणे स्थितौ । युज्यते ह्येतदप्यस्य तथा चोक्तानतिक्रमः॥
यदि ऐसा कहा जाए, वह नाश क्षणस्थितिधर्मा है तो द्वितीय आदि क्षण में उसकी स्थिति होगी, जो युक्त है । ऐसा होने से उक्त का अनतिक्रम होता है जो कहा गया है, उसका उल्लंघन-खण्डन नहीं होता।
[ १९७ ] क्षणस्थितौ तदैवास्य नास्थितियुक्त्यसंगतेः । पश्चादपि सेत्येवं सतोऽसत्त्वं व्यवस्थितम् ॥
क्षण स्थितिकता मानने पर विवक्षित क्षण में विवक्षित भाव की अस्थिति-स्थिति रहितता नहीं होती। अर्थात् उसकी स्थिति होती है। ऐसा न होने पर युक्तिसंगतता बाधित होती है। बाद में भी स्थितिराहित्य नहीं होता। यों अपरापर-अनुस्यूत सत्, असत् का एक सुव्यवस्थित क्रम है। इससे उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य का सिद्धान्त फलित होता है।
[ १६८ ] भवभावानिवृत्तावप्ययुक्ता मुक्तकल्पना ।
एकान्तकस्वभावस्य न ह्यवस्थाद्वयं क्वचित् ॥
संसार-भाव की अनिवृत्ति-एकान्त नित्यता मानने पर आत्मा के मुक्त होने की कल्पना सिद्ध नहीं होती। क्योंकि जिसका एकान्तः सर्वथा स्थिर, अपरिवर्त्य, एक रूप स्वभाव होता है, संसारावस्था, मुक्तावस्थायों दो अवस्थाएं उसके नहीं हो सकती। वैसा होने से उसकी एकस्वभावता में विरोध आता है।
[ १९६ ] तदभावे च संसारी मुक्तश्चेति निरर्थकम् । तत्स्वभावोपमर्दोऽस्य नीत्या तात्त्विक इष्यताम् ॥
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