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६२ / योगदृष्टि समुच्चय अगले क्षण-भूत, भविष्य में भी उसकी विद्यमानता होनी चाहिए। क्योंकि जैसा कहा गया है, 'वस्तु क्षणिक है'-जो ऐसा जानता है, कथन करता है, वह स्वयं क्षणिक नहीं होता। उसका अपना भूत, वर्तमान, भविष्यवर्ती अस्तित्व एक ऐसा तथ्य है, जिससे क्षणिकवाद स्वयं निरस्त हो, जाता है।
[ १६४ ] स एव न भवत्येतदन्यथा भवतोतिवत् । विरुद्ध तन्नयादेव तदुत्पत्त्यादितस्तथा ।।
क्षणिकवाद का और अधिक स्पष्टता तथा युक्तिमत्तापूर्वक यहाँ निरसन किया गया है । “स एव न भवति - वह ही नहीं होता।" "एतदन्यथा भवति-यह अन्यथा होता है।'' इन उक्तियों के आधार पर आचार्य अपना विवेचन आगे बढ़ाते हैं । 'अन्यथा भवति' इसका क्षणिकवादी खण्डन करता है। उसका कथन है-यदि भवति'-भाव है तो वह अन्यथा नहीं होता। यदि अन्यथा होता है तो भाव नहीं है। यों खण्डन करता हुआ वह स्वयं अपने से ही व्याहत हो जाता है । वह “स एव न भवति" ऐसा जो निरूपण करता है, अर्थात विगत क्षण तथा आगामी क्षण में वह नहीं होता
-यह कथन भी “एतत् अन्यथा भवति" को जैसे असंगत बतलाया, असंगत सिद्ध होता है। क्योंकि यदि “स एव-वही है तो फिर 'न भवति' सिद्ध नहीं होता और यदि वह 'न भवति' है तो फिर ‘स एव'-वही है, ऐसा फलित नहीं होता । इस युक्ति से क्षणिकवाद की सिद्धि घटित नहीं होती।
[ १६५ ] सतोऽसत्वे तदुत्पादस्ततो नाशोऽपि तस्य यत् ।
तन्नष्टस्य पुनर्भावः सदा नाशे न तस्थितिः ॥
यदि सत् का असत्त्व माना जाए, उसे असत् माना जाए तो असत्त्व की उत्पत्ति माननी होगी। यदि उत्पत्ति होगी तो नाश भी मानना होगा। फिर नष्ट हुए असत्त्व का पुनर्भाव होगा । यदि उसका नित्य नाश माना जाए तो फिर उसकी स्थिति ही नहीं टिकेगी।
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