________________
मुक्ततत्त्वमीमांसा ] ६१.
[ १६२ ] स्वभावोऽस्य स्वभावो यन्निजा सत्तैव तत्त्वतः । भावावधिरयं युक्तो नान्यथाऽतिप्रसङ्गतः ॥
आत्मा का जो अपना भाव है, तत्त्वतः जो अपनी सत्ता है, उसी प्रकार होना स्वभाव है। स्वभाव भावावधियुक्त है-स्वभाव की जैसी, जितनी मर्यादा है, वह उसी प्रकार घटित होता है, अन्य प्रकार से नहीं । शुद्ध चेतन भाव में होना, वर्तना आत्मा की स्वभाव-मर्यादा है, यही इसका मर्यादा-धर्म है । शुद्ध चेतन भाव में वर्तने से ही आत्मा का स्वभाव में आना कहा जाता है । चेतन भाव में न वर्ते तो उसका स्वभाव में आना, वर्तना नहीं कहा जाता। यदि कहा जाता है तो अति प्रसंग दोष आता है। वैसा कहना प्रसंग से बहिर्भूत है।
[ १६३ ] अनन्तरक्षणाभूतिरात्मभूतेह
यस्य तु । तयाऽविरोधान्नित्योऽसौ स्यादसत्वा सदैव हि ।।
प्रस्तुत श्लोक में आचार्य ने क्षणिकवाद का निषेध किया है जो पहले, अगले क्षण आत्मा का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता, केवल उसे वर्तमान क्षणवर्ती मानता है, स्वयं उस पर भी यह घटाया जाय तो विरोध आता है । उसके कथन के अविरुद्ध विचार किया जाए तो अपने कथनानुसार वर्तमान भाव में तो वह है, पिछले, अगले क्षण में नहीं। जो वर्तमान भाव में वर्तमान-विद्यमान है तो भाव की दृष्टि से वह नित्य होना चाहिए। तद्भाव तद्वत् होता है, ऐसा नियम है। तदवत् तभी होता है, जब पिछले क्षण में भी भाव या सत्ता हो ।
यदि पिछले, अगले क्षण में सर्वथा 'अभाव' होने पर जोर दिया जाए तो वादी का स्वयं का भी अगले, पिछले क्षण में अस्तित्व नहीं टिकता । जब वह स्वयं पिछले,अगले क्षण में नहीं है तो पिछले, अगले क्षण के सम्बन्ध में वह कैसे जान सकता है, उस सम्बन्ध में कैसे कुछ कह सकता है ? अतः वह स्वयं वर्तमान क्षण में विद्यमान है, यह इस तथ्य का सूचक है कि पिछले,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org