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________________ ६० | योगदृष्टि समुच्चय [ १८६ ] मुख्योऽयमात्मनोऽनादिचित्रकर्मनिदानजः तथानुभवसिद्धत्वात् सर्वप्राणिभृतामिति ॥ यह (भव-व्याधि) आत्मा की प्रमुख व्याधि है, कोई काल्पनिक नहीं है। अनादि काल से चले आते विविध प्रकार के कर्मों से यह प्रसूत है। सभी प्राणियों को यह अनुभवसिद्ध है- सभी इसे अपने-अपने अनुभव से जानते हैं। [ १६० ] एतन्मुक्तश्च मुक्ताऽपि मुख्य एवोपपद्यते । जन्मादिदोष विगमात्तददोषत्वसंगतेः ॥ भव-व्याधि से मुक्त हुआ पुरुष भी जन्म, मृत्यु प्रभृति दोषों के मिट जाने तथा सर्वथा दोष रहित हो जाने के कारण पारमार्थिक सत्-रूप मुख्य -प्रधान-परमोत्तम ही होता है । अर्थात भवव्याधि को जिसे मुख्य कहा गया है, मिटा देने के कारण मिटाने वाला परम पुरुष भी मुख्य ही हैमुख्य बाधक को मिटाया, स्वयं सम्पूर्ण स्वत्व प्राप्ति रूप मुख्यत्व स्वायत्त किया। [ १६१ ] तत्स्वभावोपमर्देऽपि तत्तत्स्वाभाव्य योगतः । तस्यैव हि तथाभावात्तददोषत्वसंगतिः ॥ अपने स्वभाव के उपमर्द से-विभाव या परभाव के आक्रमण से स्वभाव के उपदित-उपप्लुत-आवृत हो जाने के कारण-दब जाने या ढक जाने के कारण संसार में परिभ्रमण करती हुई आत्मा का जब योगसाधना द्वारा पुनः अपने स्वभाव से योग होता है-उसका आवृत स्वभाव उद्घाटित होता है, विभाव का आवरण हट जाता है, तब उसका तथाभाव-शुद्ध स्वरूप उद्भासित होता है और सर्वथा उसे निर्दोषावस्था प्राप्त हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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