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________________ मुक्ततत्त्वमीमांसा | ५६ उच्चावस्था प्राप्त, समग्रलब्धि सम्पन्न वीतराग प्रभु अपने अवशेष रहे चार अघाति कर्मों के उदयानुरूप इस भूतल पर विचरण करते हुए परम लोक-कल्याण सम्पादित कर-संसार के ताप से सन्तप्त लोगों को आत्मशान्ति प्रदान कर, जन-जन का महान् उपकार कर योग का पर्यवसान साध लेते हैं-अन्ततः योग की चरम-फल-प्रसूति-शैलेशी अवस्था प्राप्त कर लेते हैं। [ १८६ ] तत्र द्रागेव भगवानयोगाद्योगसत्तमात् । भवव्याधिक्षयं कृत्वा निर्वाणं लभते परम् ॥ वह परम पुरुष अयोग-योगराहित्य - मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवृत्तियों के अभाव द्वारा, जो योग की सर्वोत्तम दशा है, शीघ्र ही संसार रूप व्याधि का क्षय कर परम निर्वाण प्राप्त कर लेता है। मुक्ततत्त्वमीमांसा - [ १८७ ] व्याधिमुक्तः पुमान् लोके याहशस्ताड शो ह्ययम् । नाभावो न च नो मुक्तो व्याधिना व्याधितो न च ॥ संसार में जैसे रोगमुक्त पुरुष होता है, वैसा ही वह मुक्त पुरुष है । वह अभावरूप नहीं है, सद्भावरूप है। वह व्याधि से मुक्त नहीं हुआ, ऐसा नहीं है अर्थात् भवव्याधि से वह मुक्त हुआ है ! वह व्याधि से युक्त नहीं हुआ, ऐसा भी नहीं है क्योंकि निर्वाण प्राप्त करने से पूर्व वह भवव्याधि से युक्त था। भव एव महाव्याधिर्जन्ममृत्युविकारवान् । विचित्रमोहजननस्तोवरागादिवेदन: यह संसार ही घोर व्याधि है, जो जन्म-मरण के विकार से युक्त है, अनेक प्रकार का मोह उत्पन्न करती है तथा तीव्रराग, द्वेष आदि की वेदना-पीड़ा-संक्लेश लिये हुए है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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