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५८ | योगदृष्टि समुच्चय
जीव अपनी शुद्धभावात्मक प्रकृति से चन्द्र के समान स्थित हैं । विज्ञान - आत्मा का स्व पर प्रकाशक ज्ञान चन्द्रिका के सदृश है तथा आवरण - ज्ञानावरणादि कर्म -आवरण मेघ के समान हैं, जो शुद्ध स्वभावस्थ आत्मा को आवृत्त करते हैं ।
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घातिकर्माभ्रकल्पं तदुक्तयोगानिलाहतेः । यदापैति तदा श्रीमान् जायते ज्ञानकेवली ॥ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय तथा अन्तराय - ये घातिमूल गुणों का घात करने वाले कर्म बादल के पूर्वोक्त योगरूपी वायु के आघात से हट जाते हैं, तब साधक ज्ञानकेवली - सर्वज्ञ हो जाता है ।
आत्मा के
समान हैं । जब ये आत्म- लक्ष्मीसमुपेत
[ १८५ ]
सर्वज्ञः
क्षोणदोषोऽथ परं परार्थ सम्पाद्य ततो
अज्ञान, निद्रा, मिथ्यात्व, हास्य, अरति, रति, शोक, दुगंच्छा, भय, राग, द्वेष, अविरति वेदोदय- काम-वासना, दानान्तराय, लाभान्तराय, वीर्यान्तराय, भोगान्तराय तथा उपभोगान्तराय - इन अठारह दोषों का क्षय हो जाने से सर्वज्ञत्व प्राप्त होता है ।
सर्वलब्धिफलान्वितः । योगान्तमश्नुते ॥
चार घाति-कर्म, जो क्षीण हो चूकते हैं, उनमें एक अन्तराय - कर्म है, जिसके क्षय से अनन्त दानलब्धि, अनन्त लाभ-लब्धि अनन्तवीर्य - लब्धि, अनन्तभोग-लब्धि तथा अनन्त उपभोग - लब्धि समुदित होती है । पर यहाँ यह ज्ञातव्य है कि इन लब्धियों की सम्प्राप्ति आत्मा के क्षायिक भाव से निष्पन्न है, औदायिक भाव से नहीं । अतः शुद्ध भावापन्न आत्मा, परमपुरुष इन लब्धियों की प्रवृत्ति पौद्गलिक दृष्टि से नहीं करते । ये लब्धियाँ आत्म-स्वभावभूत हैं, आत्मा के शुद्ध स्वरूप में, परमानन्द में विविधमुखी परिणमन के रूप में इनकी प्रवृत्ति या उपयोग हैं । ये नितान्त आध्यात्मिक हैं ।
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