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________________ [ २०२ ] अवस्था तत्त्वतो नो चेन्ननु तत्प्रत्ययः कथम् । भ्रान्तोऽयं किमनेनेति मानमत्रं न विद्यते 11 मुक्ततत्त्वमीमांसा | ६५ एकान्त नित्यवादी को उद्दिष्ट कर आचार्य का कथन है- यदि पूर्वापरभावयुक्त अवस्था परमार्थतः नहीं है, ऐसा कहते हो तो फिर अवस्था का प्रत्यय-प्रतीति कैसे हो ? कारण के अभाव में कार्य कैसे हो ? इस पर बादी का पक्ष आता है --अवस्था की प्रतीति भ्रान्त-भ्रमयुक्त है, वह यथार्थ नहीं है । आचार्य का इस पर प्रत्युत्तर है--यदि अवस्था प्रतीति को भ्रमपूर्ण कहते हो तो उसका प्रमाण क्या है ? प्रमाण तो होना चाहिए । वस्तुतः इसका प्रमाण नहीं है । यह कथन अप्रमाणित है । ! २०३ ] योगिज्ञानं तु मानं चेत्तदवस्थान्तरं तु तत् 1 ततः कि भ्रान्तमेतत् स्यादन्यथा सिद्धसाध्यता 11 पूर्वपक्ष को उद्दिष्ट कर आचार्य कहते हैं -- यदि यों कहो कि योगिज्ञान -योग-साधना द्वारा निष्पन्न असाधारण ज्ञान, जिससे परोक्ष पदार्थ प्रत्यक्षवत् प्रतीत होते हैं, इसमें प्रमाण है तो योगिज्ञान तो योगी का अवस्थान्तर हैज्ञान का एक अवस्था से दूसरी अवस्था में, एक परिणमन से दूसरे परिणमन में जाना है । प्रतिवादी का कथन है -- इससे क्या होता है ? आचार्य का निरूपण है - योगिज्ञान या तो भ्रान्त होगा या अभ्रान्त | यदि उसे भ्रान्त मानते हो तो वह प्रमाण नहीं है । यदि अभ्रान्त मानते हो तो योगिज्ञान के अवस्थान्तर रूप होने से हमारा साध्य विषय आत्मा की अवस्थान्तरता -- परिणामिता सिद्ध हो जाती है । [ २०४ - २०५ ] व्याधितस्तदभावो वा तदन्यो वा यथैव हि । व्याधिमुक्तो न सन्नीत्या कदाचिदुपपद्यते ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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