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________________ परा-दृष्टि | ५५ [ १७५ ] सत्प्रवृत्तिपदं चेहासङ्गनुष्ठानसंज्ञितम् । महापथप्रयाणं यदनागामि पदावहम् ॥ पीछे जो सत्-प्रवृत्ति-पद कहा गया है, उसकी असंगानष्ठान संज्ञा है। अनुष्ठान चार प्रकार का माना गया है—१. प्रीति-अनुष्ठान, २. भक्तिअनुष्ठान, ३. वचन-अनुष्ठान तथा ४. असंग-अनुष्ठान । समग्र प्रकार के संग --आसक्तता या संस्पर्श रहित विशुद्ध आत्मानुचरण असंगानुष्ठान है। इसे अनालम्बन योग भी कहा जाता है, जो संगत्याग पर आधृत है। असंगानुष्ठान महापथप्रयाण-अध्यात्म-साधना के महान् उपक्रम में गतिशीलता का संयोजक है । यह अनागामि पद-अपुनरावर्तन-जन्म-मरण से रहित शाश्वत पद प्राप्त कराने वाला है। [ १७६ ] प्रशान्तवाहितासंज्ञं विसभागपरिक्षयः । शिववर्त्म ध्र वाध्वेति योगिभिर्गीयते ह्यदः ।। योगीजन असंगानुष्ठान पद को विभिन्न नामों से आख्यात करते हैं। इसे सांख्य दर्शन में प्रशान्तवाहिता, बौद्ध दर्शन में विसभागपरिक्षय तथा . शैव दर्शन में शिववर्त्म कहा गया है । कोई उसे ध्रुव मार्ग भी कहते हैं । [ १७७ ] एतत् प्रसाधयत्याशु यद्योग्यस्यां व्यवस्थितः । एतत्पदावहैव तत्तत्रैतद्विदां मता ।। इस दृष्टि में संस्थित योगी असंगानुष्ठान को शीघ्र साध लेता है। अतः असंगानुष्ठानपद-परम वीतराग भावरूप स्थिति को प्राप्त कराने वाली यह दृष्टि इस तथ्य के वेत्ता योगीजनों को इष्ट या अभीप्सित है। परा-दृष्टि [ १७८ ] समाधिनिष्ठा तु परा तदासंगविवजिता । सात्मीकृतप्रवृत्तिश्च तदुत्तीर्णाशयेति च ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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