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५४ | योगदृष्टि समुच्चय
[ १७२ ]
दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम् । समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः
सर्व परवशं एतदुक्तं
आत्म
परवशता — परतन्त्रता में सर्वथा दुःख है तथा आत्मवशतातन्त्रता – स्वतन्त्रता में सर्वथा सुख है । संक्षेप में यह सुख तथा दुःख का लक्षण है ।
[ १७३ ]
पुण्यापेक्षमपि ह्येवं सुखं ह्येवं सुखं परवशं स्थितम् । दुःखमेवैतत्तल्लक्षणनियोगतः ॥
ततश्च
पुण्य की अपेक्षा रखने वाला - पुण्योदय से होने वाला सुख भी परतन्त्र है । पुण्य शुभकर्म पुद्गलात्मक है, आत्मा से भिन्न है, पर है । उस पर आश्रित सुख सर्वथा परवशता लिये हुए होता है । वास्तव में वह दुःख है क्योंकि दुःख का लक्षण परवशता है ।
पुण्य भी बन्धन है । पाप लोहे की बेड़ी है, पुण्य सोने की । बेड़ी चाहे लोहे की हो या सोने की, है तो बेड़ी ही । बाँधे रखने के कारण दोनों ही कष्टप्रद हैं । इसके अतिरिक्त इतना और समझने योग्य है, जब तक पुण्य का संयोग है, पुण्यबन्ध है, संसार-बन्धन चालू रहता है, वस्तुतः जो दुःखमय है ।
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[ १७४ ]
ध्यानं च निर्मले बोधे सदैव हि महात्मनाम् । क्षीणप्रायमलं हेम सदा कल्याणमेव हि ॥
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बोध के निर्मल होने पर महान् साधकों के सदैव ध्यान संधता रहता है । जिस सोने का मैल निकाल दिया गया हो, वह सोना सदा कल्याण--- उत्तम - विशुद्धि लिए होता है । कहीं-कहीं नाम से भी उसे कल्याण कह जाता है ।
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