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________________ प्रभा - दृष्टि | ५३ इस दृष्टि में संस्थित साधक तत्त्वचिन्तन, तत्त्वमीमांसा में निरन्तर लगा रहता है । इसलिए वह मोहव्याप्त नहीं होता वह मोहमूढ़ नहीं बनता । तत्त्व-समावेश- तत्त्वज्ञान --- यथार्थ अवबोध के प्राप्त हो जाने के कारण सदैव उत्तरोत्तर उसका हित - श्रेयस् सधता जाता है । 1 प्रभा-दृष्टि [ १७० ] ध्यानप्रिया प्रभा प्रायो नास्यां रुगत एव हि । तत्त्वप्रतिपत्तियुता सत्य प्रवृत्तिपदावहा ॥ प्रभा दृष्टि प्रायश: ध्यानप्रिय है । इसमें संस्थित योगी प्रायः ध्यान निरत रहता है अर्थात् इसमें योग का सातवाँ अंग ध्यान - ध्येय में प्रत्ययकतानता' - चित्तवृत्ति का एकाग्र भाव सधता है । राग, द्वेष, मोह रूप त्रिदोष जन्य भाव-रोग यहाँ बाधा नहीं देते । दूसरे शब्दों में, राग-द्व ेषमोहात्मक प्रवृत्ति, जो आत्मिक स्वस्थता में बाधक होती है, यहाँ उभार नहीं पाती । तत्त्व मोमांसक योगी यहाँ ऐसी स्थिति पा लेता है, जिसमें उसे तत्त्वानुभूति प्राप्त होती है । सहजतया सत्प्रवृत्ति की ओर उसका झुकाव रहता है । [ १७१ ध्यानजं सुखमस्यां तु विवेकबलनिर्जातं शमसारं ९. तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् । ] इस दृष्टि में ध्यानजनित सुख अनुभूत होता है, जो काम के साधनों -रूप, शब्द, स्पर्श आदि विषयों को जीतने वाला है । वह ध्यान — प्रसूत सुख विवेक के बल – उदग्रता - तीव्रता से उद्भूत होता है । उसमें प्रशान्त भाव की प्रधानता रहती है । Jain Education International जितमन्मथसाधनम् । सदैव हि ॥ For Private & Personal Use Only - पातञ्जल योगसूत्र ३.२ www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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