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५२ | योगदृष्टि समुच्चय
[ १६६ ] भोगान् स्वरूपतः पश्यंस्तथा मायोदकोपमान् । भुजानोऽपि ह्यसङ्गः सन् प्रयात्येव परं पदम् ॥
वह साधक भोगों को मृगमरीचिका के जल की तरह मिथ्या, असार और कल्पित देखता है, जानता है । अनासक्त भाव से उन्हें भोगता हुआ भी वह परम पद की ओर अग्रसर होता जाता है।
[ १६७ ] भोगतत्त्वस्य तु पुनर्न भवोदधिलंघनम् । मायोदकडढावेशस्तेन यातीह कः पथा ॥
जो पुरुष भोगों को तात्त्विक, वास्तविक, परमार्थरूप मानता है, वह संसार-समुद्र को लाँघ नहीं सकता। जिसे मृगमरीचिका के जल में दृढ़ आवेश-अभिनिवेश या आग्रहपूर्ण निश्चय है-जो उसे सचमुच जल मानता है, किस मार्ग से वह वहाँ जाए अर्थात् मिथ्याभिनिवेश के कारण वह उसे पार करने को उद्यत नहीं होता।
[ १६८ ] स तत्रैव भवोद्विग्नो यथा तिष्ठत्यसंशयम् । मोक्षमार्गेऽपि हि तथा भोगजम्बालमोहितः ॥
पूर्वोक्त कथन के अनुसार जो मृगमरीचिका के जल को वास्तविक जल मानता है, वह संसार में उद्वेग-दुःख पाता हुआ निश्चित रूप से वहीं टिका रहता है । जब माया-जल को यथार्थतः जल मानता है, तो उसे पार कैसे करे ? उसे भय बना रहता है-वैसा करने पर वह कहीं डूब न जाए। यही स्थिति मोक्षमार्ग में है । जो पुरुष भोगों के कीचड़ में मोहित है, फंसा है, मोक्ष-मार्ग में उसका प्रवेश, गति कैसे हो ?
[ १६६ ] मीमांसाभावतो नित्यं न मोहोऽस्यां यतो भवेत् । अतस्तत्त्वसमावेशात् सदैव हि हितोदयः ॥
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