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५६ | योगदृष्टि समुच्चय
आठवीं परा-दृष्टि समाधिनिष्ठ होती है-वहाँ आठवाँ योगांग समाधि'-चित्त का ध्येयाकार में परिणमन सध जाता है । इसमें आसंग दोष-किसी एक ही योग क्रिया में आसक्ति रूप दूषण नहीं रहता। इसमें शुद्ध आत्म-तत्त्व, आत्म-स्वरूप जिस प्रकार अनुभूति में आए, वैसी प्रवृत्ति, आचरण या चारित्र सहज रूप में गतिमान् रहता है। इसमें चित्त उत्तीर्णाशय-प्रवृत्ति से उत्तीर्ण-ऊंचा उठा हुआ हो जाता है। चित्त में कोई प्रवृत्ति करने की वासना नहीं रहती।
[ १७६ ] निराचारपदो
स्यामति चारविजितः । आरुढारोहणाभावगतिवत्त्वस्य चेष्टितम् ॥
इस दृष्टि में योगी निराचार पद युक्त होता है-किसी आचार के अनुसरण का प्रयोजन वहाँ रह नहीं जाता। वह अतिचारों से विवजित होता है-कोई अतिचार या दोष लगने का कारण उसके नहीं होता । जो पहुँचने योग्य मंजिल पर चढ़ चुका हो, उसे और आगे चढ़ने की आवश्यकता नहीं रहती। अतः आगे चढ़ने का अभाव हो जाता है। वैसी ही स्थिति यहाँ स्थित योगी की होती है। उसके लिए किसो आचार का परिपालन अपेक्षित नहीं रहता। वह वैसी स्थिति से ऊंचा उठ चुकता है ।
[ १८० ] रत्नादिशिक्षाहग्भ्योऽन्या यथा हक् तनियोजने ।
तथाचारक्रियाऽप्यस्य सैवान्या फलभेदतः ॥
रत्न आदि के सम्बन्ध में शिक्षा लेते समय शिक्षार्थी की जो दृष्टि होती है, शिक्षा ले चुकने पर, उस विद्या या कला में निष्णात हो जाने पर रत्न आदि के नियोजन-क्रय-विक्रय आदि प्रयोग में उसकी दृष्टि उससे सर्वथा भिन्न होती है। क्योंकि उसकी दोनों स्थितियों में अन्तर है। शिक्षाकाल में वह जिज्ञासु था, उसे जानने की, अपना ज्ञान बढ़ाने की
१. तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ।
... -पातञ्जल योगसूत्र ३.३
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