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________________ ४२ / योगदृष्टि समुच्चय _____ अथवा सर्वज्ञों की देशना एक होते हुए भी अपने अचिन्त्य-जिसे सोचा तक नहीं जा सकता, (ऐसे) असीम पुण्य-सामर्थ्य के कारण भिन्न-- भिन्न श्रोताओं को भिन्न-भिन्न प्रकार की अवभासित-प्रतीत होती है। [ १३७ ] यथाभव्य च सर्वेषामुपकारोऽपि तत्कृतः । जायतेऽवन्ध्यताऽत्येवमस्याः सर्वत्र सुस्थिता ॥ यों भिन्न-भिन्न रूप में अवभासित होती हुई सर्वज्ञ-देशना से सब श्रोताओं का अपने भव्यत्व के अनुरूप उपकार होता है। इससे उस (देशना) की सार्वत्रिक अनिष्फलता-फलवत्ता सिद्ध होती है। [ १३८ ] यद्वा तत्तन्नयापेक्षा तत्कालादिनियोगतः । ऋषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलषाऽपि तत्त्वतः॥ अथवा द्रव्याथिक पर्यायाथिक आदि नयों की अपेक्षा से, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार की देशना ऋषियों से प्रवृत्त हुई। पर वस्तुतः उनके मूल में सर्वज्ञ-देशना ही है। अर्थात् विभिन्न अपेक्षाओं से ऋषियों ने लोकोपकार की भावना से एक ही तत्त्व को भिन्नभिन्न रूप में व्याख्यात किया। इससे तत्त्व में, तत्त्व-देशना में भिन्नता नहीं आती, केवल निरूपण की शैली में भिन्नता है। [ १३६ ] तदभिप्रायमज्ञात्वा न ततोऽर्वाग्दृशां सताम् । युज्यते तत्प्रतिक्षेपो महानर्थकरः परः ॥ उन (सर्वज्ञों) के अभिप्राय को (सर्वथा) न जानते हुए उनकी देशना का प्रतिक्षेप-विरोध करना अर्वाकदृक्-छद्मस्थ- असर्वज्ञ जनों के लिए उचित नहीं है । वैसा करना महाअनर्थकारी है । [ १४० ] निशानाथप्रतिक्षेपो यथान्धानामसंगतः । । तभेदपरिकल्पश्च तथैवाऽग्दिशामयम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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