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दीपा-दृष्टि | ४१
भवेत् ॥
[ १३३ ] सर्वज्ञपूर्वकं चैतन्नियमादेव यत् स्थितम् ।
आसन्नोऽयमृजुर्मार्गस्तभेदस्तत्कथं । निर्वाण नियमतः सर्वज्ञपूर्वक है-सर्वज्ञता प्राप्त किये बिना निर्वाण नहीं सधता। यों सर्वज्ञता का निर्वाण के साथ अविनाभाव सम्बन्ध है। दूसरे शब्दों में सर्वज्ञता निर्वाण से पूर्ववर्ती अविनाभावी स्थिति है। निर्वाण का सन्निकटवर्ती यह सर्वज्ञरूप मार्ग बिलकुल सरल-सीधा है। फिर उसमें भेद कैसे हो ? .
[ १३४ ] चित्रा तु देशनैतेषां स्याद्विनेयानुगुण्यतः ।
यस्मादेते महात्मानो भवव्याधिभिषग्वराः ॥
सर्वज्ञों की भिन्न-भिन्न प्रकार की देशना-धर्मोपदेश शिष्यों की अनुकूलता को लेकर है। क्योंकि ये महापुरुष संसार रूप व्याधि को मिटाने वाले वैद्य हैं । अतः शिष्यों के जीवन-परिष्कार हेतु, उन्हें भावात्मक दृष्टि से नीरोग बनाने के लिए जैसा अपेक्षित हो, धर्मोपदेश करते हैं, उन्हें समझाने का प्रयास करते हैं।
[ १३५ ] यस्य येन प्रकारेण बीजाधान दिसम्भवः ।
सानुबन्धो भवत्येते तथा तस्य जगुस्ततः॥
जिस प्रकार किसी विशेष पौधे को उगाने के लिए भूमि में एक विशेष प्रकार की खाद देनी होती है, उसी प्रकार जिस शिष्य की चित्तभूमि में सम्यक् बोध रूप बीज का जिस प्रकार उत्तरोत्तर विकासोन्मुख रोपण, संवर्धन आदि हो, उसे उसी प्रकार का उपदेश देते हैं ।
[ ११६ ] एकाऽपि देशनैतेषां यद्वा श्रोतृविभेदतः । अचिन्त्यपुण्यसामर्थ्यात्तथा चित्राऽवभासते॥
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