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________________ ४० | योगदृष्टि समुच्चय [ १३० ] सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथातेति च । शब्दैस्तदुच्यतेऽन्वर्थादेकमेवैवमादिभिः सदाशिव, परं ब्रह्म, सिद्धात्मा, तथाता आदि शब्दों द्वारा उसका कथन किया जाता है पर तात्पर्य की दृष्टि से वह एक ही है। सदाशिवसब समय कल्याणरूप-मंगलरूप, परं ब्रह्म-आत्मगुणों के अत्यन्त वृद्धिंगत परम विकास के कारण महाविशाल, सिद्धात्मा-विशुद्ध आत्मसिद्धि प्राप्त एवं तथाता-सदा एक जैसे शुद्ध सहजात्म-स्वरूप में संस्थितयों यथार्थतः उसमें कोई भेदात्मकता नहीं है। [ १३१ ] तल्लक्षणाविसंवादान्निराबाधामनामयम् निष्क्रिय च परं तत्त्वं यतो जन्माद्ययोगतः ॥ विभिन्न नामों से कथित परम तत्त्व का वही लक्षण है, जो निर्वाण का है अर्थात् वे एक ही हैं। वह परमतत्त्व निराबाध-सब बाधाओं से रहित-अव्याबाध, निरामय-देहातीत होने के कारण द्रव्यरोगों से रहित तथा अत्यन्त विशुद्ध आत्मस्वरूप में अवस्थित होने के कारण राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध आदि भाव-रोगों से रहित -परम स्वस्थ, निष्क्रिय-सब कर्मों का, कर्म-हेतुओं का नि:शेष रूप में नाश हो जाने के कारण सर्वथा क्रियारहित-कृत-कृत्य है। जन्म, मृत्यु आदि का वहाँ सर्वथा अभाव है। [ १३२ ] ज्ञाते निर्वाणतत्त्वेऽस्मिन्नसंमोहेन तत्त्वतः । प्रक्षावतां न तद्भक्तौ विवाद उपपद्यते ॥ इस निर्वाण-तत्त्व को असंमोह द्वारा सर्वथा जान लेने पर विचारशील, विवेकशील पुरुषों के लिए उसकी आराधना में कोई विवाद घटित नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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