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________________ दीप्रा दृष्टि | ४३ अन्धे यदि चन्द्र का निषेध करें - उसका अस्तित्व स्वीकार न करें अथवा उसमें भेद - परिकल्पना करें - उसे अनेक प्रकार का - - बांका, टेढ़ा, चतुष्कोण, गोल आदि बताएँ तो यह असंगत है । उसी प्रकार छद्मस्थ सर्वज्ञ का निषेध करें. उनमें भेद कल्पना करें, यह अयुक्तियुक्त है । ܀ [ १४१ ] न युज्यते प्रतिक्षेपः सामान्यस्यापि आर्यापवादस्तु पुन | छेदधिको सत्पुरुषों के लिए सामान्य व्यक्ति का भी विरोध, खण्डन या प्रतिकार करना उपयुक्त नहीं है, श्रद्धास्पद सर्वज्ञों का अपवाद करना, विरोध करना, प्रतिकार करना तो उन्हें जिह्वाच्छेद से भी अधिक कष्टकर प्रतीत होता है । [ १४२ ] कुदृष्ट्यादिवन्नो सन्तो भाषन्ते प्रायशः क्वचित् । निश्चितं सारवच्चैव किन्तु सत्वार्थकृत् सदा ॥ सत्पुरुष असद्दृष्टि आदि अवगुण युक्त लोगों की तरह कहीं कुत्सित वचन नहीं बोलते। वे निश्चित - सन्देहरहित, सारयुक्त तथा प्राणियों के लिए हितकर वचन बोलते हैं । [ १४३ ] निश्चयोऽतीन्द्रियार्थस्य अतोऽप्यत्रान्धकल्पानां तत्सताम् । यतः ॥ न चानुमानविषय न चातो निश्चयः सर्वज्ञ आदि इन्द्रियातीत पदार्थ का निश्चय योगिज्ञान - योग द्वारा लब्ध साक्षात् ज्ञान के बिना नहीं होता। इसलिए सर्वज्ञ के विषय में अन्धों जैसे छद्मस्थ जनों के विवाद से क्या प्रयोजन सधे ? Jain Education International योगिज्ञानादृते न च 1 विवादेन न किंचन ॥ [ १४४ ] एषोऽर्थस्तत्त्वतो मतः सम्यगन्यत्राप्याह धीधनः ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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