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________________ ३२ | योगदृष्टि समुच्चय [ १०० ] एतत्प्रधान: सत्श्राद्धः शीलवान् योगतत्परः । जानात्यतीन्द्रियानस्तिथा चाह महामतिः ।। आगमप्रधान-श्रत या आप्तवचन को मुख्य-सारभूत माननेवाला, सत् श्रद्धावान्, योगनिष्ठ पुरुष अतोन्द्रिय पदार्थों को जानता है, ऐसा महामति मुनियों (पतञ्जलि आदि) ने कहा है। आगमेनानुमानेन योगाभ्यासरसेन त्रिधा प्रकल्पयन् प्रज्ञां लभते तत्त्वमुत्तमम् ।। महर्षियों ने बताया है कि आगम, अनुमान तथा योगाभ्यास में रस-तन्मयता-यों तीन प्रकार से बुद्धि का उपयोग करता हुआ साधक उत्तम तत्त्व प्राप्त करता है - सत्य का साक्षात्कार करता है । [ १०२ न तरवतो भिन्नमताः सर्वज्ञा बहवो यतः । मोहस्तदधिमुक्तीनां तभेदाश्रयणं ततः ।। अनेक परंपराओं में भिन्न-भिन्न नामों से जो अनेक सर्वज्ञों का स्वीकार है, वहाँ यह ज्ञातव्य है कि उन (सर्वज्ञों) में किसी भी प्रकार का मतभेद या अभिप्राय-भेद नहीं है । किन्तु उन-उन सर्वज्ञों के अतिभक्त-अधिक श्रद्धाल. जो उनमें भेद-कल्पना करते हैं, वह उनका मोह प्रसूत अज्ञान है। [.१०३ ] सर्वज्ञो नाम यः कश्चित् पारमार्थिक एव हि। स एक एव सर्वत्र व्यक्तिभेदेऽपि तत्त्वतः ।। 'सर्वज्ञ' नाम से जो भी कोई पारमार्थिक आप्त पुरुष है, वैयक्तिक भेद के बावजूद तात्त्विक दृष्टि से सर्वत्र एक ही है । [ १०४ ] प्रतिपत्तिस्ततस्तस्य सामान्येनैव यावताम । ते सर्वेऽपि तमापन्ना इति न्याय गतिः परा ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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