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दीपा-दृष्टि | ३१
[ ९७ ] सर्व सर्वत्र चाप्नोति यदस्मादसमञ्जसम् ।
प्रतीतिबाधितं लोके तदनेन न किञ्चन ।।
कुतर्क द्वारा सब कहीं सब कुछ साध पाने का दुष्प्रयत्न किया जा सकता है। अतएव कुतर्क अयथार्थ है-कल्पित है, प्रतीति से बाधित हैकुतर्क द्वारा निरूपित या साधित बात में कोई प्रतीति नहीं करता, उसे मान्यता नहीं देता।
[ ६८ ] अतीन्द्रियार्थसिद्धयर्थं यथालोचितकारिणाम् । प्रयासः शुष्कतर्कस्य न चासौ गोचरः क्वचित् ॥
आलोचितकारी--आलोचन, चिन्तन, विमर्शपूर्वक कार्य करने वाले अतीन्द्रिय--जो इन्द्रियों से गृहीत नहीं किये जा सकते, ऐसे आत्मा, धर्म आदि पदार्थों को सिद्ध करने का प्रयास करते हैं-उस दिशा में प्रयत्नशील रहते हैं। ये अतीन्द्रिय पदार्थ शुष्क तर्क द्वारा गम्य नहीं हैं--ये शुष्क तर्क के विषय नहीं हैं, अनुभूति एवं श्रद्धा के विषय हैं ।
[ ६६ ] गोचरस्त्वागमस्यैव, ततस्तदुपलब्धितः ।
चन्द्रसूर्योपरागादिसंवाद्यागमदर्शनात्
स्थूल इन्द्रियों से जिसका ग्रहण सम्भव नहीं, ऐसा अतीन्द्रिय अर्थ आगम--आप्त-पुरुषों के वचन द्वारा उपलब्ध होता है । चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण आदि, जिनके होने का ज्ञान स्थूल इन्द्रियों द्वारा नहीं होता, ज्ञानी जनों के वचन द्वारा जाने जाते हैं। ऐसे संवादी-मेल खाने वाले, संगत उदाहरण से यह तथ्य स्पष्ट है। यद्यपि चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण आदि आत्मा, धर्म जैसे अलौकिक अतीन्द्रिय अर्थ नहीं है, लौकिक हैं अतः तत्त्वत: आध्यात्मिक पदार्थों से इनकी वास्तविक संगति नहीं है पर स्थूल रूप में समझने के लिए यहाँ इनका दृष्टान्त उपयोगी है।
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