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३० | योगदृष्टि समुच्चय
[ ६४ ] कोशपानादृते ज्ञानोपायो नास्त्यत्र युक्तितः । विप्रकृष्टोऽयस्कान्तः स्वार्थकृद् श्यते यतः॥
केवल शब्द कोश को ही जाना--उसे घोख जाना--तद्गम्य अर्थ को ही ठीक मानना ज्ञान का उपाः नहीं है। शब्दकोश सूचित ज्ञान युक्तिपूर्वक उपयोग में आने से कार्यकर होता है। लोह-चुम्बक लोहे को खींचता है, यह सही है, पर वह लोहे से कुछ दूरी पर होने पर ही खींचता है, बिलकुल समीप होने पर नहीं। दूर रहने पर खींचता है, यह युक्तिसाध्य है, केवल शब्दसाध्य नहीं।
[ ६५ ] दृष्टान्तमात्रं सर्वत्र यदेवं सुलभं क्षितौ ।।
एतत्प्रधानतस्तत्केन स्वनीत्यापोद्यते ह्ययम् ॥
इस पृथ्वी पर सर्वत्र--संगत-असंगत सभी विषयों में दृष्टान्त आसानी से प्राप्त हो जाते हैं--वैसे गढ़े जा सकते हैं। वही कारण है कि दृष्टान्तप्रधान कुतर्क को अपनी नीति द्वारा कोन बाधित कर सकता है ? अर्थात् जब सत्य, असत्य हर प्रकार के दृष्टान्त गढ़े जा सकते हैं तो उनकी रोक कैसे हो?
[ ६६ ] द्विचन्द्रस्वप्नविज्ञाननिदर्शनबलोत्थितः निरालम्बनतां सर्वज्ञानानां साधयन् यथा ॥
चन्द्रमा यद्यपि एक है पर दोषयुक्त नेत्र द्वारा दो भी दिखलाई पड़ सकते हैं, उसी प्रकार स्वप्न मिथ्या है पर उसका ज्ञान तो है । यद्यपि इनका कोई आधार, आलम्बन या मूल नहीं है फिर भी इसके दृष्टान्त के सहारे कोई यह दावा कर सकता है कि जिस प्रकार असत्य या अयथार्थ होने के बावजूद इनकी प्रतीति होती है, उसी प्रकार दूसरे जो भी ज्ञान हैं, प्रतीयमान हैं, वे क्यों नहीं निराधार या निरालम्बन हैं अर्थात् वे भी वैसे ही हो सकते हैं। यों दलील करने वाले को कौन रोके ?
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