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________________ दीप्रा-दृष्टि | ३३ व्यक्तिभेद के आधार पर जितने भी सर्वज्ञ कहे गये हैं, सर्वज्ञत्वरूप सामान्य गुण के आधार पर उनकी स्वरूपात्मक प्रतिपत्ति-मान्यता या पहचान एक ही है। वे सभी समानगुणात्मक स्थिति को लिए हुए हैं। गुण-सामान्यत्व के आधार पर नैयायिक पद्धति से भी ऐसा ही फलित निष्पन्न होता है-ऐसा ही न्यायसंगत है। [ १०५ ] विशेषेषु पुनस्तस्य कात्स्न्येनासर्वदशिभिः । सर्वेन ज्ञायते तेन तमापन्नो न कश्चन ॥ सर्वज्ञत्व की दृष्टि से सामान्यतया सर्वज्ञों में समानता है, ऐसा ऊपर कहा गया है । सामान्य न सही, उनमें परस्पर कोई विशेष भेद हो सकता है, ऐसी आशंका भी संगत नहीं है। क्योंकि असर्वदर्शी या असर्वज्ञ सम्पूर्णरूप में सर्वज्ञों के विशेष भेद को जानने में सक्षम नहीं है । सम्पूर्ण ही सम्पूर्ण को जान सकता है, अपूर्ण नहीं। इस दृष्टि से ऐसा कोई भी असर्वदर्शी पुरुष नहीं है, जिसने सर्वज्ञों को सम्पूर्ण रूप में अधिगत किया हो, उनकी विशेषताओं को समग्रतया स्वायत्त किया हो, जाना हो। [ १०६ ] तस्मात्सामान्यतोऽप्येनमभ्युपैति य एव हि । नियजिं तुल्य एवासौ तेनांश नैव धीमताम् ।। अतः सामान्यत: भी सर्वज्ञ को जो निर्व्याज रूप में-दम्भ कपट या बनाव के बिना मान्य करते हैं, उतने अंश-उस अपेक्षा से उन प्रज्ञाशील पुरुषों का मानस, अभिमत परस्पर तुल्य या समान ही है । अथवा बिना किसी बनाव-दिखाव या दम्भ आदि के जो सर्वज्ञ-तत्त्व को स्वीकार करते हैं, सच्चे भाव से उनकी आज्ञा, प्ररूपणा का अनुसरण करते हैं, वे सब उस अपेक्षा से परस्पर समान ही तो हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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