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आवश्यक निर्युक्ति
२१३. स्तूप
विशाला नगरी के मध्य में मुनिसुव्रत तीर्थंकर का स्तूप था । कूणिक उस नगरी को हस्तगत करना चाहता था परन्तु स्तूप के कारण वह उस पर अधिकार नहीं कर सका। आकाश से देवता ने कूणिक से कहा- 'जब श्रमण कूलबालक' मागधिका गणिका को प्राप्त होगा, उसके वशवर्ती होगा, उसके साथ भोग भोगेगा तब अशोकचन्द्र ( कूणिक) वैशाली नगरी को ग्रहण कर सकेगा ।'
कूणिक कूलबाल मुनि की खोज करने लगा। उसने गणिकाओं को बुलाया और मुनि कूलबाल को लाने की बात कही। एक गणिका बोली- 'मैं ले आऊंगी।' कपट श्राविका बन कर वह एक सार्थ के साथ उस स्थान (नदी के कूल) पर गई और श्रमण कूलबाल को वंदना की। पूछने पर वह बोली- 'भगवन् ! मैं विधवा हो गई। घर से चैत्य वंदन करने निकली हूं। आपके विषय में सुना इसलिए यहां आ गई।' उसने मुनि को पारण में चूर्ण मिश्रित मोदक दिए। इससे मुनि अतिसार रोग से आक्रान्त गए। उसने प्रयोग कर मुनि को नीरोग कर दिया। वह प्रतिदिन मुनि का उद्वर्तन करती। इससे मुनि का चित्त श्रामण्य से विलग हो गया। वह उस कपट श्राविका के फंदे में फंस गया। वह उसे विशाला नगरी में ले आई। राजा ने कूलबाल से कहा-' -'मेरा वचन सफल करो। ऐसा उपाय करो, जिससे वैशाली पर मेरा अधिकार हो जाए।' वह विशाला में नैत्तिक बनकर चला गया। विशाला के लोगों ने पूछा- 'कोणिक हमारी नगरी को घेरकर पड़ाव डाले हुए है, यह उपद्रव कब दूर होगा ?' कूलबाल मुनि ने कहा - ' - 'तुम्हारी नगरी के स्तूप को यदि उखाड़कर फेंक दिया जाए तो उपद्रव दूर हो सकता है।' स्तूप गिरा दिया गया। नगरी प्रभाव रहित हो गयी । नगरी पर कूणिक का अधिकार हो गया।
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२१४. तपःसिद्ध
एक गांव में एक ब्राह्मण रहता था । वह दुर्दान्त था, किसी को कुछ नहीं समझता था । उसे वहां से निष्कासित कर दिया । वह घूमता हुआ एक चोरपल्ली में पहुंचा। चोर सेनापति ने उसे पुत्र रूप में स्वीकार कर लिया । सेनापति की मृत्यु के पश्चात् वह स्वयं चोरों का सेनापति बन गया। वह निर्दयी था अतः उसका
दृढ़प्रहरी हो गया। एक बार वह अपने चोरों के साथ एक गांव को लूटने गया। वहां एक दरिद्र रहता था। उसके पुत्र-पौत्रों ने खीर खाने की याचना की। खीर पकाई गई । वह दरिद्र स्नान करने गया । इतने में ही चोर उसके घर में घुस गए। एक चोर ने खीर का बर्तन देखा। वह भूखा था इसलिए वह उस पात्र को
१. कूलबाल मुनि की उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है- एक आचार्य का एक अविनीत शिष्य था । आचार्य उसको उपालंभ देते थे। वह आचार्य के प्रति शत्रुता रखने लगा। एक बार आचार्य उसके साथ सिद्धशैल की वंदना करने गए। वे शैल से उतर रहे थे तब उस अविनीत शिष्य ने आचार्य को मार डालने के लिए एक शिला लुढका दी । आचार्य ने लुढकते हुए शिला देखी। उन्होंने दोनों पैर फैला दिए अन्यथा वे मर जाते। उन्होंने शाप देते हुए कहा- 'दुरात्मन् ! तुम्हारा विनाश स्त्री से होगा ।' शिष्य ने सोचा- 'आचार्य मिथ्यावादी हों अथवा यह शाप मिथ्या हो', इस दृष्टि से वह तापसों के आश्रम में रहने लगा । वह नदी के तट पर आतापना लेने लगा। उसके समीप वाले मार्ग से जो सार्थ आता, उनसे वह आहार प्राप्त कर लेता । वह नदी के कूल पर आतापना लेता इसलिए उसके प्रभाव से नदी दूसरी दिशा में बहने लगी इसलिए उसका नाम 'कूलवारक' हो गया।
२. आवनि ५८८ / २४, आवचू. १ पृ. ५६७, ५६८, हाटी. १ पृ. २९१, २९२, मटी. प. ५३३, ५३४ ।
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