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________________ ५१४ परि. ३ : कथाएं लेकर भाग गया। रोते हुए छोटे बच्चे पिता के पास गए। वे बोले- 'खीर का पात्र एक चोर ले भागा। वह दरिद्र उस चोर को मारने के लिए पीछे दौड़ा। उसकी पत्नी ने उसे रोका पर वह नहीं माना। चोर-सेनापति गांव में था। वह वहीं गया। चोर-सेनापति के साथ युद्ध हुआ।' चोर-सेनापति ने सोचा- 'यह मेरे साथी चोरों का पराभव कर देगा इसलिए सेनापति ने पकड़ कर निर्दयता से उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले।' इतने में ही उस दरिद्र की पत्नी वहां पहुंची और बोली- 'अरे निर्दयी ! तूने यह क्या कर डाला? सेनापति ने उसे भी मार डाला। वह गर्भवती थी। उसके गर्भ को फाड़ डाला। उस समय उसके मन में दया का अंकुरण हुआ और सोचा- 'मैंने अधर्म किया है।' ये बालक दरिद्र हैं, ऐसा उसे ज्ञात हुआ। उसमें तीव्रतर वैराग्य उत्पन्न हुआ। वह उपाय सोचने लगा। इतने में ही उसे साधु दृग्गोचर हए। उसने साधुओं से उपाय पूछा। साधुओं ने धर्म का उपदेश दिया। चोर-सेनापति ने उसे स्वीकार किया। वह मुनि बन गया। अपने कर्मों का विनाश करने के लिए उसने क्षमा का विशेष संकल्प धारण किया और वहीं विहरण करने लगा। उसे देखकर लोग उसकी अवहेलना करते, मारते-पीटते । वह सभी कष्टों को समतापूर्वक सहन करके अत्यंत घोर कष्ट सहन करता। भोजन न मिलने पर भी शांत रहता। उसने महान निर्जरा कर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया और सिद्ध हो गया। २१५. नमस्कार मंत्र की फलश्रुति एक श्रावक का पुत्र धर्म में अनुरक्त नहीं था। श्रावक के कालगत होने पर श्रावक-पुत्र व्यवहारशून्य होकर ऐसे ही घूमता था। एक बार उसके परिजनों के आवासस्थल के निकट एक त्रिदंडी परिव्राजक आकर ठहरा। श्रावकपुत्र उसके साथ मैत्री करने लगा। एक बार उस परिव्राजक ने उससे कहा-'तुम अनाथ व्यक्ति का निरुपहत शव ले आओ, मैं तुम्हें धनवान बना दूंगा।' उस लड़के ने शव की खोज की। उसे वैसा शव प्राप्त हो गया। परिव्राजक उस लड़के को यह कहकर श्मशान ले गया कि वहां जाकर कुछ विधि करनी है। लड़का नमस्कार मंत्र जानता था। उसके माता-पिता ने कहा था कि भय लगे तब इसका पाठ करना, यह परम विद्या है। लड़के को शव के सामने बिठाया। मृतक के हाथ में एक तलवार दी गई। परिव्राजक विद्या का पाठ करने लगा। शव वैताल के रूप में उठने लगा। लड़का भयाक्रान्त होकर नमस्कार मंत्र का परावर्तन करने लगा। उठा हुआ वैताल नीचे गिर पड़ा। परिव्राजक पुनः विद्या का परावर्तन करने लगा। शव पुनः उठा। लड़का दृढ़ता से नमस्कार मंत्र का परावर्तन करता रहा। शव पुनः गिर पड़ा। परिव्राजक ने लड़के से पूछा-'कुछ जानते हो?' लड़का बोला-'नहीं।' परिव्राजक ने पुन: विद्या का जाप प्रारंभ किया। शव पुनः उठा। लड़का नमस्कार मंत्र का परावर्तन कर ही रहा था कि शव पुन: नीचे गिर पड़ा। व्यन्तर देव रुष्ट हो गया। उसने आकर उसी तलवार से परिव्राजक (त्रिदंडी) के दो टुकड़े कर डाले। वह सुवर्णपुरुष हो गया। उसके सारे अंगोपांगो को रात भर पृथक्-पृथक् काट कर, स्वर्ण लेकर वह लड़का धनाढ्य बन गया। सुवर्णपुरुष का यह क्रम है कि रात्रि में उसको जितना काटा जाए, प्रातः वह पुनः उन्हीं अवयवों से युक्त हो जाता है, उसका कभी पूर्ण विनाश नहीं होता। यदि लड़के के पास नमस्कार-मंत्र का बल नहीं होता तो वह उस व्यन्तर देव के द्वारा मारा जाता और सुवर्णपुरुष बनकर परिव्राजक के काम आता। १. आवनि. ५८८/२५, आवचू. १ पृ. ५६८, हाटी. १ पृ. २९२, मटी. प. ५३४।। २. आवनि. ६४५, आवचू. १ पृ. ५८९, हाटी. १ पृ. ३०१, ३०२, मटी. प. ५५४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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