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________________ आवश्यक नियुक्ति ५०१ रहा। यह कहकर कोशा ने मुनि स्थूलिभद्र का पूर्व वृत्तान्त सुनाया। कोशा की वैनयिकी बुद्धि से रथिक उपशान्त हो गया और श्रावक बन गया। १९०. गीली साड़ी एक कलाचार्य ने राजपुत्रों को शिक्षित किया। राजकुमारों ने उसे प्रचुर धन दिया। राजा को यह ज्ञात हुआ। वह धन का लोभी था अतः धन की प्राप्ति के लिए उसने कलाचार्य को मार डालना चाहा। राजपुत्रों को यह बात ज्ञात हो गयी। उन्होंने सोचा-'कलाचार्य ने हमें विद्या का दान दिया है अतः हमें इनको बचाना चाहिए।' एक दिन जब वह भोजन करने आया तब स्नान से निवृत्त होकर उसने धोती मांगी। राजपुत्रों ने सूखी धोती के लिए भी यह कहा- 'अहो! यह धोती गीली है, इसलिए नहीं दी जा सकती।' द्वार के सम्मुख तृण रखकर कहा- 'अहो! यह तृण बहुत लंबा है।' भोजन से पूर्व क्रौंचपक्षी को प्रदक्षिणा कराई जाती थी। उस दिन बिना प्रदक्षिणा किए उसे उतारा गया। कलाचार्य इन संकेतों को समझ गए। गीली धोती का संकेत है कि राजा उसके प्रति विरक्त हो गया है। दीर्घतृण के संकेत से कुमारों ने भक्तिपूर्वक मुझे लम्बे रास्ते से जाने की ओर संकेत किया है। क्रौंचपक्षी के संकेत से वे कहना चाहते हैं कि मेरा यहां संहार होने वाला है अतः शीघ्र चला जाऊं। संकेत को समझकर कलाचार्य वहां से चला गया। १९१. नीव्रोदक (नेवे का पानी) एक वणिक् स्त्री का पति परदेश गया हुआ था। चिरकाल तक वह नहीं लौटा। उसने दासी से अपनी यथार्थ दशा बताते हुए कहा-'जाओ, किसी सुंदर युवापुरुष को ले आओ।' दासी गई और एक व्यक्ति को ले आई। नाई से उसके नख कटवाए. स्नान करवाया। रात्रि में वह उसे शयनगह में ले गई और खाना खिलाया। वह प्यास से आकुल हो रहा था। उस महिला ने उसे वर्षा से टपकते हुए नेवे का पानी पिला दिया। वह जल त्वक् विष वाले सर्प से संसृष्ट था। पानी पीते ही वह पुरुष मर गया। दासी ने उसे शून्य देवकुल में ले जाकर छोड़ दिया। प्रात:काल दंडरक्षिकों ने उसे देखा। नव संस्कारित नखों को देखकर उन्होंने नापित वर्ग से पूछा-'इसके नख किसने काटे हैं?' एक नापित बोला- 'अमुक सेठानी की दासी के कहने पर मैंने काटे हैं।' पहले दासी ने इंकार कर दिया लेकिन पीटे जाने पर उसने यथार्थ बात बता दी। वणिक् स्त्री से पूछने पर उसने नीव्रोदक पिलाने की बात कही। राजपुरुषों ने नेवे के पानी का परीक्षण किया। उन्होंने छप्पर पर त्वक् विष वाला सर्प देखा। दंडरक्षकों की वैनयिकी बुद्धि से यह खोज संभव हो सकी। १९२. बैल, अश्व और वृक्ष से पतन किसी गांव में एक हतभाग्य पुरुष रहता था। वह जो कुछ करता, वह विपरीत हो जाता। एक बार १. आवनि. ५८८/१७, आवचू. १ पृ. ५५४, ५५५, हाटी. १ पृ. २८३, २८४, मटी. प. ५२५। २. आवनि. ५८८/१८, आवचू. १ पृ. ५५५, हाटी. १ पृ. २८४, मटी. प. ५२५ । ३. छप्पर का छोर, जहां से वर्षा का पानी टपकता है। ४. आवनि. ५८८/१८, आवचू. १ पृ. ५५५, हाटी. १ पृ. २८४, मटी. प. ५२५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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