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परि. ३ : कथाएं १८८. औषध (शतसहस्रवेधी विष)
एक नगर के राजा को यह ज्ञात हुआ कि शत्रु राजा नगर को घेरने के लिए सेना के साथ आ रहा है। राजा ने पानी के सारे साधनों को नष्ट करने के लिए पानी में विष डालने की योजना बनाई। उसने विषवैद्यों को आमंत्रित किया। एक वैद्य चने जितना विष लेकर आया। यह देख राजा रुष्ट हो गया। वैद्य बोला'राजन् ! यह शतसहस्रवेधी विष है। इससे लाखों-लाखों प्राणी मारे जा सकते हैं।' राजा ने पूछा-'इसका प्रमाण क्या है?' वैद्य बोला-'राजन् ! कोई वृद्ध हाथी मंगाएं।' राजा के आदेश से एक अत्यंत क्षीणकाय हाथी लाया गया। विष-वैद्य ने उसकी पूंछ का एक बाल उखाड़ा और उसी बाल से उसमें विष संचरित कर दिया। उस विपन्न हाथी में वह विष फैलता हुआ दिखाई दिया और पूरा हाथी विषमय हो गया। वैद्य बोला-'इस विष से यह हाथी भी विषमय हो गया है। जो व्यक्ति इसे खाएगा, वह भी विषमय हो जाएगा। यह इस विष का शतसहस्रवेधी होने का प्रमाण है।' राजा ने पुन: पूछा- 'क्या विष-प्रतिकार का भी कोई उपाय है?' वैद्य बोला-'हां, है।' वैद्य ने उसी बाल से वहीं एक औषधि का प्रक्षेप किया। हाथी स्वस्थ होकर चलने लगा। राजा वैद्य की वैनयिकी बुद्धि से प्रसन्न हो गया। १८९. रथिक और गणिका
पाटलिपुत्र नगर में कोशा और उपकोशा नाम की दो गणिकाएं रहती थीं। कोशा गणिका के साथ स्थूलिभद्र रहते थे। कालान्तर में वे विरक्त होकर प्रवजित हो गये। उन्होंने कोशा के निवासस्थान पर ही वर्षारात्र बिताया। उस समय कोशा श्राविका बन गई और अब्रह्मचर्य सेवन का प्रत्याख्यान कर लिया। राजनियोग (राजाज्ञा) का उसने अपवाद रखा।
सुलस नामक रथिक ने राजा को सेवा द्वारा प्रसन्न कर लिया। उसने राजा से कोशा गणिका का सहवास मांगा। राजा ने उसे आज्ञा दे दी। रथिक कोशा की चित्रशाला में गया। कोशा उसके समक्ष बार-बार स्थूलिभद्रस्वामी का गुणग्राम करती रही। उसने रथिक को स्वामी के रूप में स्वीकार नहीं किया। रथिक अपना कौशल दिखाने की इच्छा से कोशा को अशोकवाटिका में ले गया। रथिक ने भूमि पर खड़े होकर बाण चलाया और उससे आम्रपिंडी को बींध डाला। फिर बाण चलाते-चलाते वह एक दूसरे बाण को पिछले हिस्से से जोड़ता चला गया। आखिरी बाण हाथ के समीप आ गया। उसको अर्द्धचन्द्र शस्त्र से छिन्न कर आम्रपिंडी को हस्तगत कर लिया। इस कौशल से भी कोशा संतुष्ट नहीं हुई। वह बोली-'अभ्यास से क्या दुष्कर है ? अब तुम मेरा कौशल देखो।'
___ कोशा ने सर्षप के ढेर पर सूई के अग्रभाग से कणेर के फूलों को पिरोया। फिर सूई के अग्रभाग पर नृत्य किया। रथिक ने उसके कौशल की बहुत प्रशंसा की। कोशा ने समझाते हुए कहा
न दुक्कर तोडिय अंबलुंबिया, न दुक्करं सरिसवनच्चियाई।
तं दुक्करं तं च महाणुभावं,जं सो मुणी पमयवणम्मि वुच्छो।। अर्थात् शिक्षित व्यक्ति के लिए आम्रलुम्बी को तोड़ना दुष्कर नहीं है तथा सर्षप राशि पर नृत्य करना भी दुष्कर नहीं है। दुष्कर है मुनि स्थूलिभद्र की महान् शक्ति का प्रयोग, जो प्रमदवन में रहकर निर्लिप्त १. आवनि. ५८८/१७, आवचू. १ पृ. ५५४, हाटी. १ पृ. २८३, मटी. प. ५२५ ।
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