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आवश्यक नियुक्ति
४९९ लक्षण सम्पन्न अश्वों से अन्य अनेक अश्वों को पैदा किया जा सकता है। अश्वस्वामी ने एक दृष्टान्त सुनाते हुए कहा- “एक वर्धकि था। वह अपने मामा के घर गया। मामा ने अपनी पुत्री की शादी उसके साथ कर दी और उसे घर-जंवाई के रूप में रख लिया। वह कुछ काम नहीं करता था। भार्या द्वारा प्रेरित होने पर प्रतिदिन जंगल जाता पर खाली हाथ लौट आता था। छह महीने बीत गए। एक दिन उसे एक विशिष्ट काठ मिला। उसने उस काठ का एक कुलक (धान्य मापने का साधन) बना दिया। उसने भार्या को वह कुलक दिया और एक लाख रुपए में बेचने को कहा। उस कुलक का गुण बताते हुए उसने कहा कि इस कुलक द्वारा धान्य मापकर दिए जाने पर वह कभी समाप्त नहीं होता। एक सेठ ने उसे अपने पास रखा और स्वर्ण मुद्राओं से डलिया भरकर उस कुलक से लाख मुद्राएं दीं। डलिया वापिस लाख मुद्राओं से भर गयी। सेठ ने अत्यधिक सत्कार और सम्मान करके उसे वापिस भेज दिया। वह अक्षयनिधि वाला हो गया।
इस दृष्टान्त को सुनकर भार्या ने अपने पति की सलाह को स्वीकार कर लिया। अश्वस्वामी ने उस व्यक्ति के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। १८७. ग्रन्थि (बुद्धि-परीक्षा)
__ पाटलिपुत्र में मुरुण्ड नामक राजा राज्य करता था। वहां आचार्य पादलिप्त विराज रहे थे। राजा की परीक्षा करने के लिए विदेशी राज्य के कुछ बुद्धिमान् व्यक्तियों ने तीन वस्तुएं भेजी-१. गूढ सूत्र २. समयष्टि और ३. चारों ओर से समान मंजूषा, जिसका मुख दिखाई नहीं दे। उन्होंने कहलवाया कि हम जानना चाहते हैं कि सूत्र का अग्राग्र कहां है ? यष्टि का मूल भाग कौनसा है ? तथा मंजूषा का द्वार कहां है ? राजा ने अनेक व्यक्तियों को वे वस्तुएं दिखाईं और उनका समाधान पूछा पर कोई भी रहस्य नहीं बता सका। तब राजा ने पादलिप्त आचार्य को बुलाकर पूछा-'भगवन्! क्या आप इन प्रश्नों का समाधान जानते हैं ?' आचार्य ने कहा-'हां, जानता हूं।'
__ आचार्य ने सूत्र को गरम पानी में डलवाया। उस पर लगा हुआ मोम पिघल गया। सूत्र का अग्र एवं अंत भाग पकड़ में आ गया। आचार्य जानते थे कि लकड़ी का मूल भाग भारी होता है। उन्होंने यष्टि को पानी में डलवाया। उसका गुरु भाग नीचे चला गया, जिससे यष्टि का मूल भाग ज्ञात हो गया।
मंजूषा पर लाख लगाया हुआ था अत: उसको गरम पानी में डाला। लाख पिघलने से मंजूषा का द्वार प्रगट हो गया। तीनों प्रश्नों का समाधान हो गया। मुरुण्ड राजा ने आचार्य को भी कुछ दुर्विज्ञेय कौतुक करने का निवेदन किया। आचार्य ने विदेशी बुद्धिमान् व्यक्तियों की परीक्षा के लिए ऊंट के चर्म का एक थैला बनवाया। उसमें रत्न रखकर उस चर्ममय थैले को सीवनी से सीकर उसको राल के रस से सांध दिया। राजा ने उन व्यक्तियों को कहलवाया कि इस थैले को तोड़े बिना रत्नों को निकाल लें। उन्होंने दूत के साथ थैला भेज दिया। उन व्यक्तियों ने प्रयत्न किया पर वे रत्न नहीं निकाल सके। १. आवनि. ५८८/१७, आवचू. १ पृ. ५५३, ५५४, हाटी. १ पृ. २८३, मटी. प. ५२४) २. आवश्यक चूर्णि, हारिभद्रीय टीका एवं नंदी हारिभद्रीय टिप्पनकम् में आचार्य ने एक तुम्बा लिया। उसमें एक स्थान पर एक खण्ड को हटाकर तुम्बे को रत्नों से भर दिया और पुनः उस खंड को इस रूप में सांधा, जिससे कोई जान न सके
राजा ने विदेशी दूतों को कहा कि इसको तोड़े बिना रत्नों को ग्रहण करना है पर वे इसमें सफल नहीं हो सके। ३. आवनि. ५८८/१७, आवचू. १ पृ. ५५४, हाटी. १ पृ. २८३, मटी. प. ५२४, ५२५ ।
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