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आवश्यक नियुक्ति
४९५ उत्पन्न होगा। कुछ बड़ा होने पर वह इस अशोक वृक्ष के नीचे बैठकर विवाद को समाहित करेगा, तब तक तुम दोनों आराम से खाओ-पीओ और बच्चे का पालन-पोषण करो। इस निर्णय को सुनकर वन्ध्या प्रसन्न हो गयी। उसने सोचा कि इतना लम्बा समय मिल गया। आगे जो होगा, देखा जाएगा। उसने रानी के निर्णय को स्वीकार कर लिया। पुत्र की मूल माता उदास हो गयी। रानी सुमंगला ने उसकी उदासी से जान लिया कि यही इसकी सच्ची माता है। उसने निर्णय दिया कि यह गृहस्वामिनी होगी और पुत्र भी इसके साथ रहेगा। १७८. इच्छा
एक वणिक् ब्याज पर दूसरों को रुपये देता था। अचानक उसका देहान्त हो गया। उसकी पत्नी ब्याज पर दिए रुपये वसूल नहीं कर पा रही थी। उसने अपने पति के एक मित्र से कहा- 'तुम मेरे रुपये वसूल करवा दो।' उसने कहा- 'यदि तुम मुझे उसका कुछ हिस्सा दो तो मैं सहयोग कर सकता हूं।' वह बोली- 'तुम जो चाहो, वह हिस्सा मुझे दे देना।' उसने प्रयत्न किया और सारे रुपये वसूल कर लिए। उसमें से उसने सेठानी को थोड़ा हिस्सा देना चाहा। उसने लेने से इन्कार कर दिया। दोनों में विवाद हो गया। न्यायाधीश के पास विवाद पहुंचा। न्यायाधीश ने सारा धन मंगाकर उसके दो पुंज कर दिए– 'एक छोटा और एक बड़ा।' वणिक् को पूछा- 'तुम कौनसा पुंज लेना चाहते हो?' उसने कहा- 'बड़ा पुंज क्योंकि सेठानी ने मुझे कहा था कि तुम जो चाहो वह मुझे दे देना।' न्यायाधीश बोला- 'इस शर्त के अनुसार तुमने बड़ा ढेर चाहा है, इसलिए यह सेठानी को दो और तुम छोटा ढेर लो क्योंकि तुम्हारी शर्त यही है।' १७९. शतसहस्र
एक व्यक्ति संन्यास से परिभ्रष्ट होकर इधर-उधर घूमता था। उसके पास लाख रुपयों के मूल्य वाला एक स्वर्ण पात्र था। उसने यह घोषणा करवाई कि जो कोई मुझे अपूर्व और अश्रुतपूर्व बात सुनायेगा, उसे मैं यह स्वर्णपात्र दे दूंगा। उसकी यह विशेषता थी कि वह एक बार सुनकर बात याद रख लेता था इसलिए कोई उसे जीत नहीं सकता था। उसकी घोषणा सुनकर अनेक व्यक्ति उसके पास आए पर उसने अपनी स्मृति के आधार पर सबको परास्त कर दिया।
एक सिद्धपुत्र ने उसकी घोषणा सुनी। वह चुनौती देकर अपूर्व बात सुनाने के लिए उपस्थित हुआ। उसने कहा
तुज्झ पिया मह पिउणो, धारेइ अणूणगं सयसहस्सं।
जइ सुयपुव्वं दिज्जउ, अह न सुयं खोरयं देहि ।। अर्थात् तुम्हारे पिता ने मेरे पिता से एक लाख रुपए लिए थे। यह बात तुम्हें याद हो तो लाख रुपए दो अन्यथा तुम्हारा यह स्वर्णपात्र दो। परिव्राजक परास्त हो गया और प्रतिज्ञा के अनुसार उसने यह स्वर्णपात्र उसको दे दिया।
१. आवनि, ५८८/१५, आवचू. १ पृ. ५५१, हाटी. १ पृ. २८२, मटी. प. ५२२, ५२३ । २. आवनि. ५८८/१५, आवचू. १ पृ. ५५२, हाटी. १ पृ. २८२, मटी. प. ५२३। ३. आवनि. ५८८/१५, आवचू. १ पृ. ५५२, हाटी. १ पृ. २८२, मटी. प. ५२३।
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