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१३९. अर्थसिद्ध (मम्मण सेठ)
राजगृह नगर में मम्मण सेठ रहता था। उसने अत्यंत परिश्रम से प्रचुर अर्थ का अर्जन किया। वह न पूरा भोजन करता और न ही पीता था । उसने अपने प्रासाद की छत पर स्वर्णमय एक बैल का निर्माण करवाया। उसमें दिव्य रत्न जटित किए। उसके सींग वज्रमय थे। उसमें करोड़ों का व्यय हो गया। उसने दूसरे बैल का निर्माण प्रारम्भ किया । वह भी पूर्णता की ओर ही था। एक बार उस बैल की निर्मिति के निमित्त वर्षारात्रि में मम्मण लंगोटी लगाए नदी से काठ के गट्ठर निकाल रहा था। राजा श्रेणिक और रानी चेलना दोनों गवाक्ष में बैठे थे। रानी की दृष्टि उस पर पड़ी। वह दयाभिभूत हो गई। उसने सात्विक आक्रोश करते हुए राजा से कहा
परि. ३ : कथाएं
'सच्च सुव्वइ एयं, मेहनइसमा हवंति रायाणो । वज्जेइ ॥ '
भरियाई भरेंति दढं, रित्तं जत्तेण
यह सही सुना जाता है कि राजा लोग वर्षा की नदियों के समान होते हैं । वे भरे हुए को और अधिक भरते हैं, जो रिक्त हैं उन्हें प्रयत्नपूर्वक रिक्त ही रखते हैं। राजा ने पूछा- 'कैसे ?' रानी बोली"देखिए, वह गरीब कितना कष्ट पा रहा है।' रानी ने नदी की ओर अंगुलि कर राजा को दिखाया। राजा ने मम्मण को अपने पास बुला भेजा। राजा ने पूछा- 'इतना कष्ट क्यों पा रहे हो ?' उसने कहा- 'मेरे पास एक बैल है, मैं उसकी जोड़ी का दूसरा बैल चाहता हूं। वह प्राप्त नहीं हो रहा है।' राजा बोला - एक नहीं, सौ बैल ले लो। वह बोला— ‘इन बैलों से मेरा क्या प्रयोजन ? पहले जैसा ही दूसरा चाहिए।' राजा बोला- ‘तेरा वह बैल कैसा है ?' मम्मण राजा को अपने घर ले गया और स्वर्णनिर्मित बैल दिखाया। राजा बोला - 'यदि मैं अपना संपूर्ण खजाना भी दे दूं, फिर भी इस बैल की संपूर्ति नहीं हो सकती । आश्चर्य है इतना वैभव होने पर भी तुम्हारी तृष्णा नहीं भरी । ' मम्मण बोला- 'जब तक मैं इसकी पूर्ति नहीं कर लूंगा, तब तक मुझे चैन नहीं होगा । '
मम्मण के अनेक व्यापार चालू थे। अनेक दिशाओं में व्यापार के लिए अनेक पदार्थों के शकट भेजे । कृषि प्रारंभ की। हाथी, घोड़े और नपुंसकों को लेने-देने का कार्य प्रारंभ किया। राजा ने पूछा' तुम्हारे इतना व्यापार है तो फिर नदी में खड़े रहकर कष्ट क्यों पाते हो ?' मम्मण बोला- 'मेरा शरीर कष्ट सहने में सक्षम है । वर्षाकाल के कारण अन्य व्यापार नहीं चलते। वर्षाकाल में काठ बहुमूल्य हो जाते हैं इसलिए नदी से मैं उन गट्ठरों को निकाल रहा हूं।' राजा बोला- 'तुम्हारे मनोरथ पूरे हों । तुम ही उन्हें पूरा कर सकते हो, दूसरा कोई अन्य उन्हें पूरा करने में समर्थ नहीं हो सकता। मैं भी समर्थ नहीं हूं'– इतना कहकर राजा चला गया। मम्मण श्रम करता रहा । समय पर मनोरथ पूरा हुआ। उसने दूसरे बैल का निर्माण कर लिया।
१४०. यात्रासिद्ध (तुंडिक )
एक गांव में तुंडिक नामक वणिक् रहता था। वह सामुद्रिक व्यापार करता था। हजारों बार उसका प्रवहण भग्न हो गया, फिर भी वह विरत नहीं हुआ। वह कहता - 'जो जल में नष्ट हुआ है, वह पुन: जल १. आवनि. ५८८/८, हाटी. १ पृ. २७५, २७६, मटी. प. ५१५, चूर्णि में यह कथा नहीं है।
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