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वाले सारे पात्र पत्थर से फूटने लगे। वह क्षुल्लक भिक्षु डरकर भाग गया। आचार्य बौद्धों के विहार में गए। भिक्षु बोले- 'आओ और बुद्ध के पैरों में गिरो ।' आचार्य बुद्ध प्रतिमा को संबोधित कर बोले- 'आओ वत्स! शुद्धोदनपुत्र ! मुझे वंदना करो।' प्रतिमा से बुद्ध निकले और आचार्य के चरणों में गिर गए। वहां द्वार पर एक स्तूप था। आचार्य ने उसे भी संबोधित कर कहा - 'आओ, पैरों में गिरो ।' स्तूप वहां से उठा और आचार्य के पैरों में गिरा । आचार्य ने कहा- 'उठो ।' स्तूप वहां से उठा और अर्धावनत होकर स्थित हो गया। आचार्य ने कहा- 'ऐसे ही स्थित रहो।' वह एक ओर झुका हुआ वैसे ही स्थित हो गया। उसका प्रचलित नाम निर्ग्रन्थनामित हो गया । "
१३७. मंत्रसिद्ध
एक राजा विषयलोलुप था। एक बार वह सुंदर साध्वी पर आसक्त होकर उसे अपने भवन में ले आया। पूरा संघ एकत्रित हुआ । उसमें एक व्यक्ति मंत्रसिद्ध था । उसने राजभवन के सभी खंभों को मंत्रित कर डाला। वे आकाश में अधर रहकर खट्कार करने लगे। पूरे प्रासाद के स्तंभ भी हिल उठे। राजा भयभीत हो गया। उसने साध्वी को मुक्त कर संघ से क्षमायाचना की।
१३८. योगसिद्ध (आर्य समित)
आभीर देश में कृष्णा नदी और वेन्ना नदी के मध्य एक गांव में तापसों का आश्रम था। वहां अनेक तापस रहते थे। उनमें एक तापस अपनी पादुकाओं पर लेप कर पानी पर आता-जाता और घूमता था। लोगों को बहुत आश्चर्य होता था। वहां श्रावकों की अवहेलना होने लगी। एक बार वज्रस्वामी के मामा आर्य समित विहरण करते हुए वहां आए। श्रावक आर्य समित के पास गए और इस समस्या से उनको अवगत कराया। आर्य कुछ करना नहीं चाहते थे। उन्होंने श्रावकों से कहा- 'आर्यो ! कुछ प्रतीक्षा क्यों नहीं करते ? वह तापस अपनी पादुकाओं को लेप लगाता है।' इतना सुनते ही श्रावक समझ गए। एक दिन श्रावकों ने तापस के पास जाकर प्रार्थना की- 'भगवन् ! हम भी आपको दान देना चाहते हैं। आप हमारे घर पर पधारें।' तापस उनकी प्रार्थना स्वीकार कर उनके घर गया । श्रावक बोले- 'भगवन्! आप अपने पैर धो लें। हम भी दान देकर अनुगृहीत होंगे।' तापस पैर धोना नहीं चाहता था परन्तु श्रावकों ने उसके पैर और पादुकाएं पानी से धोकर साफ कर दीं। दान लेकर तापस वहां से लौटा। नदी के पानी में पैर रखते ही वह डूब गया। लोग चिल्लाए । लोगों ने तापस का दंभ देख लिया।
आर्य समित उस गांव से चले। उन्होंने द्रव्ययोग को नदी में फेंककर नदी से कहा- 'हे वेन्ने नदी ! मुझे तट दो। मैं उस तट पर जाना चाहता हूं।' इतने में ही दोनों तट एक हो गए। आर्य समित ने सहजता से नदी पार कर ली । तापसों ने देखा तो वे प्रभावित होकर आर्य समित के पास प्रव्रजित हो गए। वे ब्रह्मद्वीप के निवासी थे, इसलिए वे ब्रह्मद्वीपिक कहलाए।
१. आवनि. ५८८/५, आवचू. १ पृ. ५४१, ५४२, हाटी. १ पृ. २७४, २७५, मटी. प. ५१४ ।
२. आवनि. ५८८ /६, आवचू. १ पृ. ५४२, ५४३, हाटी. १ पृ. २७५, मटी. प. ५१४ । ३. आवनि. ५८८/७, आवचू. १ पृ. ५४३, हाटी. १ पृ. २७५, मटी. प. ५१५
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