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आवश्यक नियुक्ति
४७३ सका। साधुओं ने धर्म कहा। उसने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली।
(कुछ कहते हैं-उसने मुनि से कहा-'ठहरो।' मुनि बोले- 'हम तो ठहरे हुए ही हैं, तुम ठहरो।' उसने चिंतन किया कि मुझे आत्मा में ठहरना है। वह आत्मा में स्थिर हो गया।) १३३. स्पर्शनेन्द्रिय के प्रति आसक्ति (सुकुमालिका)
बसंतपुर नगर के राजा जितशत्रु की महारानी का नाम सुकुमालिका था। उसका स्पर्श अत्यंत सुकुमाल था। उसमें लुब्ध होकर राजा राज्य-चिन्ता से उपरत हो गया। वह प्रतिदिन अपनी पत्नी में ही आसक्त रहता था। कुछ समय बीता। राज्य के कर्मकरों तथा सामन्तों ने परस्पर मंत्रणा कर राजा और रानीदोनों को निष्कासित कर उनके पुत्र को राज्यगद्दी पर बिठा दिया। राजा-रानी दोनों अटवी में घूम रहे थे। रानी को प्यास लगी। उसने पानी मांगा। राजा ने उसकी दोनों आंखों पर पट्टी बांधते हुए कहा- 'यह अटवी भयंकर है, तुमको भय न लगे इसलिए पट्टी बांधी है।' राजा ने उसे अपनी भुजाओं का रक्त पिलाया। रक्त में मूलिका डाली जिससे कि वह गाढ़ा न हो। जब रानी को भूख लगी तब उसने अपनी जांघ का मांस काटकर उसको खिलाया और व्रण-संरोहिणी जड़ी लगा कर जांध के घाव को ठीक कर दिया।
वे चलते-चलते एक नगर में पहंचे। रानी ने अपने आभषण छपा लिए। राजा वहां व्यापार करने लगा। उसी गली में एक पंगु बैठता था। एक बार रानी ने राजा से कहा- 'मैं घर में अकेली नहीं रह सकती। किसी दूसरे की व्यवस्था करो।' राजा ने सोचा- 'यह जो पंगु व्यक्ति है, वह निरपाय है।' राजा ने उसे गृहपालक के रूप में नियुक्त कर दिया। वह रानी को गीत, संगीत तथा कथा आदि से प्रसन्न करने लगा। रानी उसमें आसक्त हो गई। अब वह अपने पति राजा के छिद्र देखने लगी। उसे कोई छिद्र नहीं मिला। एक दिन राजा उद्यान में टहलने के लिए गया। उस समय उसने उसे अत्यधिक मद्य पिलाकर बेहोश कर नदी में फेंक दिया। उनका धन पूरा हो गया। अब वह रानी मादक द्रव्य खाकर उस पंगु को अपने कंधे पर बिठाकर गाती हुई गांव-गांव और घर-घर घूमने लगी। लोगों के पूछने पर वह कहती- 'माता-पिता ने मेरे लिए ऐसा ही वर ढूंढा, मैं क्या करूं?' इधर गंगा के प्रवाह में बहते-बहते राजा एक नगर के किनारे पहुंचा। वह एक वृक्ष की छाया में विश्राम कर रहा था। उस वृक्ष की छाया स्थिर हो गई। उस नगर का राजा अपुत्र था। वह मर गया। मंत्रियों ने अश्व को अधिवासित कर घुमाया। अश्व उसी वृक्ष के पास आकर रुका। लोगों ने जय-जयकार किया। राजा नींद से उठा। वह उस नगर का राजा बन गया।
एक बार पंगु को कंधे पर लिए वह रानी भी उसी नगर में आई। राजा को ज्ञात हुआ। राजा ने दोनों को बुलाने भेजा। राजा ने उसका परिचय पूछा । वह बोली- 'माता-पिता ने मेरा विवाह ऐसे ही व्यक्ति के साथ किया है, मैं क्या करूं?' राजा बोला
'बाहुभ्यां शोणितं पीतं, ऊरुमांसं च भक्षितम्।
गंगायां वाहितो भर्त्ता, साधु साधु पतिव्रते!॥ अर्थात् जिसकी बाहुओं का खून पीया, जंघा का मांस खाया, उस पति को गंगा में प्रवाहित कर दिया, ऐसी पतिव्रता को साधुवाद है। राजा ने दोनों को अपने जनपद से निर्वासित कर डाला । सुकुमालिका १. आवनि. ५८३, आवचू. १ पृ. ५३४, हाटी, १ पृ. २६८, मटी. प. ५०६, ५०७।
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