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________________ ४७४ ने स्पर्शनेन्द्रिय के कारण बहुत दुःख भोगा ।" १३४. कर्मसिद्ध कोंकण देश के सह्य पर्वत के एक दुर्ग से माल उतारा और चढ़ाया जाता था। वहां पांच सौ भारवाहक रहते थे। ये काम करने वाले गुरुभारवाही हैं, यह सोचकर राजा ने यह आज्ञा प्रसारित की - 'मैं भी इन गुरुभारवाही पुरुषों को पहले मार्ग दूंगा, रोकूंगा नहीं। ये पुरुष आते-जाते मार्ग से न हटें, अन्य किसी को मार्ग न दें। जो इस आदेश का पालन नहीं करेगा, उसे मैं दंडित करूंगा।' सिन्धु देश का एक पुराना भारवाही था । श्रामण्य से उसका मन उचट गया था। उसने सोचा कि मैं वहां जाऊं, जहां यह जीव कार्यभार से विचलित न हो और सुख में लुब्ध न हो। उन भारवाहियों ने उसे अपने साथ मिला लिया। रात्रि के अवसान में कुक्कुट की ध्वनि से प्रतिबुद्ध होकर वह बोलता - 'मुझे सिद्धि दो.....।' फिर वह सह्य गिरि की यात्रा प्रारंभ कर देता। वह सबसे अधिक भार वहन करता था इसलिए वह भारवाहकों में प्रधान बन गया। एक बार उसे रास्ते में साधु मिले। उसने साधुओं को मार्ग दे दिया। साथी रुष्ट होकर राजा के पास जाकर बोले- 'राजा भी भार से कष्ट पाते हुए हमको मार्ग देता है, परंतु इस भारवाही ने खाली हाथ वाले निर्धन श्रमणों को मार्ग दिया है।' राजा ने उसे बुलाकर कहा-' -'तुमने उचित नहीं किया, मेरी आज्ञा का भंग किया है।' उसने राजा से कहा - 'देव ! क्या आपने हमको गुरुभारवाही मानकर यह आज्ञा प्रसारित की थी ?' राजा बोला – 'हां।' वह बोला- 'यदि ऐसा है तो मैंने जिनको रास्ता दिया है, वे गुरुतर भारवाही हैं।' राजा ने पूछा- 'कैसे ?' वह बोला- 'देव ! वे बिना विश्राम किए यावज्जीवन अठारह हजार शीलांग और पांच महाव्रत का भार वहन करते हैं, जिसे उठाने में मैं भी समर्थ नहीं हुआ । साधु मेरु पर्वत से भी अधिक भार वहन करने वाले हैं।' धर्मकथा करते हुए उसने कहा- 'राजन् ! जो भारवाही हैं, वे विश्राम करते हुए भार वहन करते हैं । शील का भार बिना विश्राम किए यावज्जीवन के लिए होता है। यह सुनकर राजा प्रतिबुद्ध हुआ । संवेग को प्राप्त होकर वह प्रव्रज्या के लिए उद्यत हो गया। १३५. शिल्पसिद्ध - (कोक्कास वर्धक ) सोपारक नगर में रथकार की दासी और ब्राह्मण पुरुष से एक पुत्र उत्पन्न हुआ। मुझे कोई पहचान न ले इसलिए वह मूक रहने लगा । रथकार के कई पुत्र थे । वह उन्हें शिक्षित करना चाहता था परंतु वे मंदबुद्धि होने के कारण पिता की शिक्षा को ग्रहण नहीं कर सके। उस दासपुत्र ने सारी शिक्षा ग्रहण कर ली । रथकार की मृत्यु हो गई। राजा ने उसके घर का सम्पूर्ण धन दासपुत्र को दे दिया। वह उस घर का स्वामी बन गया। परि. ३ : कथाएं उज्जयिनी का राजा श्रावक था । उसके पास चार अन्य श्रावक थे। एक रसोइया था, वह भोजन पकाता। उसका भोजन जिसको रुचिकर लगता, वह तत्काल पच जाता । अन्यथा दो, तीन, चार, पांच प्रहरों में भी नहीं पचता। दूसरा व्यक्ति तैलमर्दक था, वह शरीर का तैलमर्दन करते समय एक-एक कुडव तैल शरीर में रमा देता था और पश्चात् वह तैल उतनी ही मात्रा में पुनः बाहर निकाल देता था। तीसरा व्यक्ति १. आवनि. ५८३, आवचू. १ पृ. ५३४, ५३५, हाटी. १ पृ. २६८, २६९, मटी. प. ५०७ । २. आवनि. ५८८/२, आवचू. १ पृ. ५३९, ५४०, हाटी. १ पृ. २७२, २७३, मटी. प. ५१२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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