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________________ ४७२ परि. ३ : कथाएं धनिक पुत्र भी वहां आ गया। वे पूजा-अर्चा कर देवी को मारने का उपक्रम करने लगे। उस तरुण ने पूछा'इसने क्या अपराध किया है ? इसे मत मारो, मुक्त कर दो।' वे बोले- 'यह मारी है, इसलिए इसे मारते हैं।' वह बोला- 'क्या मारी ऐसी आकृति वाली होती है ? किसी ने तुमको गुमराह किया है, इसे मत मारो।' किन्तु वे चांडाल उसे छोड़ना नहीं चाहते थे। तब वह तरुण बोला-'मैं तुम्हें अपार धन राशि दूंगा, करोड़ों मूल्य के अलंकार दूंगा, तुम इसे छोड़ दो।' उसने अलंकार प्रस्तुत किए। देवी ने सोचा- 'यह कौन है, जो मुझ पर अकारण वात्सल्य दिखा रहा है ?' देवी का उस तरुण के प्रति प्रतिबंध हो गया। चांडालों ने तरुण से कहा-'यदि इस नारी के प्रति तुम्हारा प्रतिबंध है तो हम इसे एक शर्त पर मुक्त कर सकते हैं। वह शर्त यह है कि तुम यहां न रहो दूसरे देश में चले जाओ।' तरुण ने शर्त स्वीकार कर ली। चांडालों ने देवी को मुक्त कर दिया। वह देवी को लेकर वहां से दूर देश चला गया। रानी ने सोचा- 'यह प्राण देने वाला है, वत्सल है।' उसका उसके प्रति दृढ़ अनुराग हो गया। वह उसके आलाप-संलाप से प्रभावित हो गई। देशान्तर में दोनों भोग भोगते हुए सुखपूर्वक रहने लगे। एक बार वह तरुण नाटक देखने के लिए प्रस्थित हुआ। देवी स्नेह के वशीभूत होकर उसे जाने देना नहीं चाहती थी। उसके स्नेह को देखकर तरुण हंसा। देवी ने हंसने का कारण पूछा तो उसने यथार्थ बात बता दी। देवी विरक्त हो गई। वह विशुद्ध संयम पालने वाली आर्याओं के पास प्रव्रजित हो गई। वह तरुण आर्त रौद्र-ध्यान में मरकर नरक में उत्पन्न हुआ। १३१. घ्राणेन्द्रिय के प्रति आसक्ति एक कुमार था, जो गंधप्रिय था। वह सदा नौकाओं में क्रीडा करता था। उसकी सौतेली मां ने एक दिन मंजूषा में विष रखकर उसे नदी में प्रवाहित कर दिया। कुमार ने नदी में आती हुई मंजूषा को देखा। वह मंजूषा को तट पर ले आया। उसको खोलकर देखने लगा। उस बड़ी मंजूषा के भीतर एक छोटी मंजूषा थी। उसने उत्सुकता से उसे खोला और गंधद्रव्य जानकर सूंघा। सूंघते ही वह मर गया।' १३२. रसनेन्द्रिय के प्रति आसक्ति राजा सौदास मांसप्रिय था। उस दिन अमावस्या थी। शुक का मांस एक विडाल ले गया। कसाइयों से मांस की खोज की लेकिन वह नहीं मिला। तब रसोइए ने एक बालक को मार डाला। राजा के पूछने पर रसोइए ने बताया कि यह बालक का मांस है। उसने प्रतिदिन बच्चों को मारने की आज्ञा दे दी। नागरिकों को भी पता लग गया। उन्होंने राजा को राक्षस मानकर उसे भत्यों द्वारा मद्य पिलाकर अटवी में छोड़ दिया। चौराहे पर बैठ हाथी को लेकर वह प्रतिदिन मनुष्यों की घात करने लगा। (कोई कहते हैं- 'वह एकान्त में मनुष्यों को मारने लगा।') ___ एक बार उधर से एक सार्थ निकला। वह सो रहा था। उसे सार्थ का पता नहीं चला। सार्थ के साथ प्रवासी मुनि आवश्यक-प्रतिक्रमण करने के लिए एकान्त में ठहरे। वे सार्थ से बिछुड़ गए। उन्हें देखकर वह राजा उनकी सेवा में पहुंचा। उसने उनको मारना चाहा लेकिन उनके तप के प्रभाव से वह कुछ नहीं कर १. आवनि. ५८३, आवचू. १ पृ. ५३०-५३३, हाटी. १ पृ. २६६-२६८, मटी. प. ५०५, ५०६। २. आवनि. ५८३, आवचू. १ पृ. ५३३, ५३४, हाटी. १ पृ. २६८, मटी. प. ५०६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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