SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 527
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६६ इसका कारण पूछने लगा। वह बोला- 'इस नगर में एक दीपक जलता है, मैंने उसको देखते हुए पानी में पूरी रात बिता दी ।' उस वणिक् ने शर्त के अनुसार हजार रुपए मांगे। वणिक् ने कहा- 'तुम शर्त के अनुसार पानी में नहीं रहे अत: मैं रुपए नहीं दूंगा।' उसने रुपये न देने का कारण पूछा। वणिक् बोला- 'तुम दीपक के प्रभाव से पानी में खड़े रह गए।' रुपए न मिलने पर वह अधीर हो गया। उसकी पुत्री बहुत बुद्धिमती थी । उसने पिता से अधैर्य का कारण पूछा। वणिक् बोला- 'मैं व्यर्थ ही पूरी रात पानी के मध्य खड़ा रहा।' पुत्री बोली- 'आप अधीर न बनें।' उष्णकाल आने पर आप उस वणिक् को अन्य व्यापारियों के साथ भोजन के लिए निमंत्रण देना। जब वे खाना खाते हुए पानी मांगें तो उनके सामने दूरी पर पानी रखकर कहना— 'यह पानी है, प्यास बुझा लो।' वणिक् ने सभी व्यापारियों को भोजन के लिए निमंत्रित किया। सबने भोजन करने के पश्चात् पानी की मांग की। वह दरिद्र वणिक् बोला- 'इस पानी को देखते हुए आप लोगों की तृषा दूर हो जाएगी।' वह व्यापारी बोला- 'इस प्रकार दूर से पानी देखने से प्यास कैसे दूर होगी ?' तब वह दरिद्र वणिक् बोला- 'जब पानी को देखते हुए तुम्हारी प्यास नहीं बुझी तो दीपक देखते हुए मुझे ठंड नहीं लगी, यह कैसे संभव है ?' वह जीत गया और व्यापारियों ने उसे हजार मुद्राएं दिलवा दीं। उस व्यापारी ने सोचा'इस मंदबुद्धि को यह बुद्धि किसने दी ? ' व्यापारी ने कारण पूछा तो उसने बताया कि पुत्री की बुद्धि से ऐसा संभव हुआ है। वह उसकी पुत्री से द्वेष करने लगा। रोष में आकर उसने उसकी कन्या के साथ शादी करना चाहा। पिता अपनी कन्या को उसे नहीं देना चाहता था। उसने सोचा कि कहीं मात्सर्य दोष से यह कन्या को भविष्य में दुःख न दे। पुत्री ने पिता से कहा - 'मेरा विवाह उसके साथ कर दो। क्या यह मुझे मार देगा, जो आप इतने भयभीत हो रहे हैं ?' पिता ने पुत्री का विवाह कर दिया। उधर उस व्यापारी ने अपने घर में कुआ खुदवाना शुरू किया । पुत्री ने पिता से कहा आप जाकर खोज करो कि उसके घर के मध्य में क्या है ? गवेषणा करने पर ज्ञात हुआ कि वहां कुंआ खोदा जा रहा है। तब उस वणिक्पुत्री ने उस कुंए से लेकर अपने घर तक सुरंग खुदवा ली। उन दोनों का विवाह हो गया। शादी के बाद उसने पत्नी को कुंए में डाल दिया! उसके ऊपर सौ किलो कपास देते हुए कहा अब तुम्हारी पंडिताई का प्रयोग करो। मैं यात्रा पर जा रहा हूं। तुम इस कपास को कातो और तीन पुत्र मुझे दो। उसने अपने घर वालों को आदेश दिया कि इसे कोद्रव का भोजन और कांजी का पानी प्रतिदिन देते रहना है। वह भी सुरंग के माध्यम से अपने पिता के घर जाकर बोली- 'इस कपास का सूत कतवाओ और जो भोजन कूप में मिले, उसे स्वीकार करो। मैं गणिकावेश में किसी दूसरे नगर में जा रही हूं।' उसने भाड़े पर एक मकान खरीदा। अपने व्यापारी पति को परिचित किया और उसे अपने घर लेकर आ गई। उसने पूछा- 'तुम अभी तक कन्या कैसे रही हो ?' वह बोली- 'मैं पुरुषद्वेषिणी हूं। तुम मुझे अच्छे लगे इसलिए तुम्हें अपने घर लेकर आई हूं।' उसने व्यापारी की सेवा की और अनेक वर्षों तक उसके साथ रही। उसके तीन पुत्र उत्पन्न हो गए। उसने व्यापारी से सारा धन ग्रहण कर लिया । परि. ३ : Jain Education International कथाएं एक दिन व्यापारी अपने घर लौट गया । वह भी गुप्त रूप से उसी सार्थ के साथ अपने गांव लौट आई और सबसे पहले अपने पिता के घर पहुंच गई। सूत और पुत्रों को लेकर वह उसी सुरंग से कुंए में चली गई। वणिक् अपने घर पहुंचा और उसको याद किया। वह पुराने द्वेष को भूलकर उसके प्रति दयामय हो गया था। उसने अपने परिजनों से पूछा- 'क्या वह कुंए में भक्त - पान आदि ग्रहण करती थी ?' परिजनों ने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy