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आवश्यक नियुक्ति
४६५ दिया। अब वह नौकरी करता हुआ इधर-उधर घूमने लगा। एक दिन वह आर्तध्यान से दुःखी होकर मर गया। माया के दोष से मरकर वह एक वृक्ष के कोटर में शुक रूप में उत्पन्न हुआ। उसे जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हुआ और वह आख्यानक तथा धर्मकथा करने लगा। एक वनचारी ने उसे पकड़ लिया। उसने उसका एक पैर और एक आंख निकाल कर उसे लंगड़ा और काना बना दिया। वह उसे बेचने के लिए बाजार में ले गया परन्तु उसे कौन खरीदता? एक श्रावक की दुकान पर शुक को रखकर वह दूसरी दुकानों से मूल्य लेने गया। शुक ने अपना परिचय दिया। श्रावक जिनदास ने उसे खरीद लिया और पिंजरे में डाल दिया। उसके स्वजन मिथ्यादृष्टि थे। शुक उन्हें धर्म बताने लगा। धर्म से वे उपशांत हो गए।
एक बार उस श्रावक का पुत्र माहेश्वर की पुत्री को देखकर उन्मत्त हो गया। उस दिन उन सभी ने न धर्म सुना और न प्रत्याख्यान ही किया। पूछने पर उन्होंने यथार्थ बात बता दी। शुक ने कहा- 'तुम विश्वस्त रहो।' तोते ने पुत्र को सिखा दिया कि तुम जाओ, भस्म लगाने वाले संन्यासियों के पास जाकर ठीकरियों की अर्चना करो। बाद में एक ईंट को उखाड़कर मुझे पीछे से मारना। उसने वैसा ही किया। संन्यासियों का श्रद्धालु लड़की का पिता उसके पैरों में लुठकर बोला-'मेरी पुत्री को वर दो।' शुक बोला- 'धनाढ्य जिनदास को पुत्री ब्याह दो।' उसका विवाह हो गया। वह पुत्री अहंकार से ग्रस्त हो गई
ह मानने लगी कि मैं देवदत्ता हं अर्थात देवता द्वारा प्रदत्त है। एक बार शक हंसा। पछने पर उसने पूर्व वृत्तान्त बता दिया। यह सुनकर वह उसके प्रति ईर्ष्या करने लगी...... । 'तुम पंडित हो' यह कहकर वह उसकी पांख उखाड़ देती। शुक ने सोचा-मुझे काल बिताना है। एक दिन वह बोला- 'मैं पंडित नहीं हूं।' पंडिता तो वह नाईन है।
एक बार नाईन खेत की ओर भत्ता लेकर जा रही थी। चोरों ने उसे पकड़ लिया। उसने कहा-मुझे भी ऐसे पुरुष ही चाहिए। रात को तुम मेरे यहां आना। हम रुपयों को लेकर भाग जायेंगे। वे रात को आए। उसने क्षुरप्र से उन चोरों के नाक काट डाले। दूसरे दिन खेत की ओर जाते हुए चोरों ने उसे फिर पकड़ लिया। वह सिर पीटती हुई बोली- 'तुम कौन हो?' वह उनके साथ भाग गई। एक गांव में शराब बेचने वाले के घर भक्त लाने के बहाने उन्होंने उसे बेच डाला। वे रुपये लेकर भाग गए। वह रात को एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगी। वे चोर भी वहीं विश्राम करने लगे। वे गायों का अपहरण करके वहां लाए थे अतः उसका मांस खाने लगे। एक व्यक्ति मांस को लेकर वृक्ष के पास आकर दिशाओं की ओर देखने लगा। उसने स्त्री को देखा। वह स्त्री उसे रुपये दिखाने लगी। वह उस स्त्री के पास आया। उस स्त्री ने दांतों और जीभ से उसे पकड़ लिया। गिरते हुए को 'बैठ'-ऐसा कहने पर वह बैठ गया। अवसर देखकर वह मांस लेकर घर भाग गई। शुक बोला— 'वह नाईन पंडिता थी, मैं पंडित नहीं हूं।' तब उसने उसकी दूसरी पांख उखाड़ कर शुक से कहा- 'तुम पंडित हो।' शुक बोला- 'मैं पंडित नहीं, पंडित तो वह वणिक्पुत्री है।' माहेश्वर की पुत्री ने पूछा-'वह वणिक्पुत्री पंडिता कैसे हुई?' इसका उत्तर देते हुए शुक बोला
बसंतपुर नगर में एक वणिक् था। उसने एक दूसरे वणिक् के साथ शर्त लगाई कि जो माघ महीने में रात्रि को पानी के बीच खड़ा रहेगा, उसको मैं हजार रुपए दूंगा। एक दरिद्र वणिक् रात भर पानी में खड़ा रह गया। वणिक् ने सोचा- 'यह इतनी शीत ऋतु में रात को पानी में कैसे रहा? मरा क्यों नहीं?' वह उससे
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