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________________ ४६४ परि. ३ : कथाएं है। उसने शंख से अपने पुत्र समुद्रदत्त के लिए ससम्मान उसकी याचना की । शंख की स्वीकृति पर विवाह संपन्न हो गया। कुछ समय पश्चात् समुद्रदत्त उसे लेने आया । ससुराल वालों ने उसका स्वागत किया । वासगृह सजाया गया। उसी समय सर्वांगसुंदरी के माया के कारण बंधा हुआ कर्म उदय में आ गया। समुद्रदत्त वासगृह में बैठा था । उसने जाती हुई दैविकी पुरुष - छाया को देखा और सोचा- 'मेरी पत्नी दुःशीला है क्योंकि कोई उसको देखकर अभी-अभी गया है।' इतने में ही सर्वांगसुंदरी वासगृह में आई । पति ने उसके साथ आलाप संलाप नहीं किया । अत्यंत दुःखी होकर उसने धरती पर उदास बैठकर रात बिताई। प्रभात होने पर उसका पति अपने स्वजनवर्ग से बिना पूछे केवल एक ब्राह्मण को बताकर साकेत नगर चला गया। उसने कौशलपुर के श्रेष्ठी नन्दन की पुत्री श्रीमती और उसके भाई ने नन्दन की दूसरी पुत्री कान्तिमती के साथ विवाह कर लिया। सर्वांगसुंदरी ने जब इस विवाह की बात सुनी तो वह अत्यंत खिन्न हो गई। अब उसके और पति समुद्रदत्त के बीच व्यवहार समाप्त हो गया । सर्वांगसुंदरी धर्म - ध्यान में तत्पर रहने लगी और कालान्तर में वह प्रव्रजित हो गई । एक बार अपनी प्रवर्तिनी के साथ विहरण करती हुई वह साकेत नगर में आई। उस समय सर्वांगसुंदरी के माया द्वारा बंधा हुआ दूसरा कर्म उदय में आया । वह पारणक करने के लिए नगर में भिक्षाचर्या के लिए श्रीमती के घर गई। उस समय वह शयनगृह में हार पिरो रही थी। साध्वी को देखकर हार को वहीं रख कर वह भिक्षा देने उठी । इतने में ही चित्र में चित्रित एक मयूर उतरा और हार को निगल गया। साध्वी ने सोचा- 'यह कैसा आश्चर्य ?' भिक्षा लेकर साध्वी चली गई। श्रीमती ने देखा कि हार नहीं है । उसने सोचा, यह कैसी गजब की क्रीड़ा। परिजनों के पूछने पर वे बोले - 'यहां केवल एक आर्या के अतिरिक्त कोई नहीं आया।' श्रीमती ने साध्वी का तिरस्कार किया और घर से निकाल दिया। साध्वी ने अपने उपाश्रय में जाकर प्रवर्तिनी से मयूर वाली आश्चर्यकारी बात कही। प्रवर्तिनी बोली- 'कर्मों का परिणाम विचित्र होता है।' वह साध्वी उग्रतप करने लगी। अनर्थ से भयभीत होकर उसने श्रीमती के घर जाना छोड़ दिया। श्रीमती और कांतिमती के पति अपनी पत्नियों का उपहास करने लगे परन्तु दोनों विपरिणत नहीं हुईं। उग्रतप करने वाली साध्वी सर्वांगसुंदरी के कर्म कुछ शिथिल हुए। एक बार श्रीमती अपने पति के साथ वासगृह में बैठी थी। उस समय चित्र से नीचे उतरकर मयूर हर को उगल दिया। यह देखकर दोनों में विरक्ति पैदा हुई। उन्होंने सोचा - 'ओह ! साध्वी की कितनी गंभीरता है कि उसने कुछ नहीं बताया।' वे उससे क्षमायाचना करने प्रवृत्त हुए। इतने में ही साध्वी को केवलज्ञान हो गया। देवताओं ने उसकी महिमा की । वे दोनों पति-पत्नी वहां आए। साध्वी से कारण पूछने पर उसने पूर्वभव का कथन किया। वे भी प्रव्रजित हो गए।" १२७. माया विषयक शुक की कथा एक वृद्ध अपने पुत्र के साथ दीक्षित हुआ । पुत्र सुखशील बन गया। पिता ने उसकी सभी इच्छाएं पूरी कीं । अन्त में पुत्र ने कहा- 'मैं स्त्री के बिना नहीं रह सकता।' तब पिता ने उसे तिरस्कृत करके निकाल १. आवनि. ५८३, आवचू. १ पृ. ५२६-५२८, हाटी. १ पृ. २६२-२६४, मटी. प. ५०२, ५०३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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