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________________ आवश्यक नियुक्ति ४६३ धनश्री धार्मिक कार्यों में बहुत अधिक व्यय करने लगी। उसकी दोनों भौजाइयां उसके इस कार्य से बहुत क्लेश पाती थीं और अंटसंट बोलती रहती थीं। धनश्री ने सोचा- 'मुझे भाइयों के चित्त की परीक्षा करनी चाहिए। इनसे मुझे क्या? शयनकाल में विश्वस्त होकर माया से आलोचना करके वह भाभी से धार्मिक चर्चा करने लगी। फिर आवाज बदलकर उसका पति सुन सके वैसी आवाज में भाभी से बोली'और अधिक क्या? शाटिका की रक्षा करना।' यह सुनकर भाई ने सोचा- 'निश्चित ही मेरी पत्नी दुश्चरित्रा है। भगवान् ने असती स्त्रियों के पोषण का निषेध किया है अत: मुझे इसका परित्याग कर देना चाहिए, यह सोचकर उसने पर्यंक पर बैठी हुई अपनी पत्नी का परित्याग कर दिया। उसने सोचा- 'यह क्या हुआ?' भाई ने अपनी पत्नी से कहा-'तुम मेरे घर से निकल जाओ।' उसने सोचा- 'मैंने ऐसा क्या दुष्कृत किया, जो मुझे घर से निकाला जा रहा है।' उसे अपनी कोई भी गलती याद नहीं आई। उसने भूमि पर बैठ कर कष्ट से सारी रात बिताई। प्रभात होने पर वह म्लान बनी हुई बाहर आई। धनश्री ने कहा- 'आज इतनी म्लान क्यों हो?' उसने रोते हुए बताया- 'मुझे मेरा कोई अपराध नहीं दीख रहा है फिर भी मुझे घर से निष्कासित किया जा रहा है।' धनश्री बोली-'तुम विश्वस्त रहो। मैं तुम्हें तुम्हारे पति से मिला दूंगी।' धनश्री ने अपने भाई से कहा- 'यह क्या? यह म्लान क्यों है ?' भाई बोला- 'यह दुःशीला है।' धनश्री ने पूछा- 'यह कैसे जाना?' उसका भाई बोला- 'यह तुम्हारी बात से ही ज्ञात हुआ है।' भाई ने कहा- मैंने भगवान् की देशना सुनी है। उन्होंने असती स्त्रियों के निवारण की बात कही है। धनश्री बोली-'अहो, तुम्हारी पंडिताई और विचार करने की क्षमता भी विचित्र है। मैंने सामान्य रूप से तुम्हारी पत्नी को भगवान् की देशना सुनाई और शाटिका की रक्षा करने की बात कही। क्या इतने मात्र से वह दुश्चारिणी हो गई?' यह सुनकर भाई लज्जित हुआ और मिथ्या दुष्कृत किया। धनश्री ने सोचा कि मेरा भाई सम्पूर्णतः पवित्र और निर्मल रूप को स्वीकार करना चाहता है। दूसरे भाई की भी इसी प्रकार परीक्षा हुई। उसने भाभी से कहा'और अधिक क्या कहूं? तुम हाथ की रक्षा करना।' यह सुनकर उसने भी अपनी पत्नी को तिरस्कृत करके घर से निकालना चाहा लेकिन बहिन ने उसे यथार्थ स्थिति की अवगति दी। धनश्री ने सोचा-'मेरा यह भाई भी पूर्ण पवित्रता को स्वीकार करने वाला है।' माया और अभ्याख्यान दोष से उसने तीव्र कर्म बांध लिए। उसकी आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना ही तीव्र भावना से वह प्रव्रजित हो गयी। दोनों भाई भी अपनी पत्नियों के साथ प्रव्रजित हो गए। आयुष्य का पालन कर सभी देवलोक में उत्पन्न हुए। वहां से दोनों भाई पहले च्युत होकर साकेत नगर में सेठ अशोकदत्त के घर में पुत्ररूप में उत्पन्न हुए। उनका नाम समुद्रदत्त और सागरदत्त रखा गया। पूर्वभव की बहिन धनश्री भी वहां से च्युत होकर गजपुर नगर में धनवान् श्रावक शंख के घर में पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई। वह अत्यंत सुंदर थी इसलिए उसका नाम 'सर्वांगसुंदरी' रखा गया। दोनों भाइयों की दोनों पत्नियां देवलोक से च्युत होकर कौशलपुर में नन्दन नामक धनिक के घर में दो पुत्रियों के रूप में जन्मीं। दोनों का नाम रखा गया- श्रीमती और कांतिमती। दोनों यौवन अवस्था को प्राप्त हुईं। __एक बार सर्वांगसुंदरी साकेत नगर से गजपुर आई। अशोकदत्त श्रेष्ठी भी वहां आया हुआ था। उसने सर्वांगसुंदरी को देखा और पूछा- 'यह किस की कन्या है?' उसे बताया गया कि यह शंख श्रेष्ठी की कन्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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