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परि. ३ : कथाएं राजा बन गया। वह अपने पूर्वजन्म की स्मृति करने लगा। उसने अपने पूर्वभव के अशुभ जन्मों को देखा और सोचा यदि मैं अभी मारा जाऊंगा तो सबके द्वारा तिरस्कृत होऊंगा इसलिए उसने अपने ज्ञान से एक समस्या प्रस्तुत करके कहा- 'जो इस समस्या की पूर्ति करेगा, उसे मैं आधा राज्य दूंगा।' वह समस्या इस प्रकार है- 'गंगा नदी पर नाविक नंद, सभा में छिपकली, मृतगंगा के तट पर हंस, अंजनकपर्वत पर सिंह, बनारस में बटुक और वहीं राजा।' लोगों ने यह समस्या सुनी। आबाल-गोपाल इस समस्या को पढ़ने लगे।
एक बार मुनि विहार करते हुए बनारस आए और उद्यान में ठहरे। उद्यानपालक भी यही समस्या बार-बार उच्चारित कर रहा था। मुनि के पूछने पर उसने सारी बात बता दी। मुनि बोला- 'मैं इस समस्या की पूर्ति कर दूंगा।' मुनि ने कहा- 'जो इन सबका घातक है, वह यहीं आया हुआ है।' वह आरामिक राजा के समक्ष गया और यही बात कही। इस बात को सुनकर राजा मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। राजा के आरक्षक आरामिक को पकड़ कर मारने लगे। उसने कहा- 'जिसने इसकी पूर्ति की है, वह हन्यमान है, मैं इस संदर्भ में कुछ नहीं जानता। एक मुनि ने मुझे यह पूर्ति दी है। राजा की मूर्छा टूटी।' राजा ने पूछा- 'यह पूर्ति किसने की?' आरामिक बोला-'एक श्रमण ने।' राजा ने श्रमण के पास अपने आदमियों को भेजा और पूछा-आपकी अनुमति हो तो मैं आपको वंदना करने आऊं। मुनि ने अनुमति दी। राजा आया और मुनि के समक्ष श्रावक बन गया। मुनि पूर्वाचरित पापों का प्रायश्चित्त कर सिद्ध हो गए। १२३. परशुराम
बसंतपुर नगर में एक सेठ का घर उजड़ गया। एक बालक बचा। वह एक सार्थवाह के साथ देशांतर के लिए निकला। सार्थवाह ने उसे छोड़ दिया। घूमते-घूमते वह एक तापसपल्ली में पहुंचा। उसका नाम आग्निक था। वह तापसों के यहां बढ़ने लगा। तापसाश्रम के अधिपति का नाम यम था। यम का पुत्र होने के कारण उसका नाम जामदग्निक हो गया। वह घोर तप तपने लगा। सर्वत्र उसकी ख्याति फैल गई।
दो देव थे। उनमें एक का नाम वैश्वानर था, वह श्रमणभक्त था। दूसरे देव का नाम धन्वन्तरी था, वह तापसभक्त था। दोनों देवों ने परस्पर परामर्श कर यह निश्चय किया कि हमें श्रमण और तापस की परीक्षा करनी है। जो श्रावक देव था, वह बोला-श्रमणों में जो सबसे अंतिम है उसका तथा तापस में जो सर्वप्रधान है,उसकी परीक्षा करेंगे।
मिथिला नगरी में तरुणधर्मा पद्मरथ राजा राज्य करता था। वह भगवान् वासुपूज्य के पास प्रव्रजित होने के लिए चंपा जा रहा था। देवताओं ने भक्त और पान से उसकी परीक्षा की। विषम रास्ते में उसके कोमल शरीर को कष्ट देना प्रारम्भ किया। देवों ने अनुलोम उपसर्ग भी उपस्थित किए फिर भी वह अत्यंत स्थिर रहा। देव उसे क्षुभित नहीं कर सके। दोनों देव पक्षी का रूप बनाकर जामदग्निक के पास गए। तापस की जटा में उन्होंने नीड़ बना लिया। पुरुष शकुनि ने कहा- 'भद्रे ! मैं हिमवान् पर जाना चाहता हूं।' वह बोली- 'वहां मत जाओ।' शकुनि गोघातक आदि की शपथपूर्वक कहने लगा- 'मुझे जाना ही है।' वह बोली- 'मैं इन शपथों में विश्वास नहीं करती। यदि तुम इस ऋषि के पापों को पी सकते हो तो मैं वहां जाने १. आवनि. ५८३, आवचू. १ पृ. ५१६, ५१७, हाटी. १ पृ. २५९, २६०, मटी. प. ४९९ ।
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