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________________ आवश्यक नियुक्ति ४५९ ऊरु तोड़ डाला। कहीं मैं पानी में गिरकर अप्काय की विराधना न कर डालूं-यह सोचकर मिथ्यादुष्कृत कहता हुआ वह मुनि जमीन पर गिर पड़ा। सम्यग्दृष्टि वाली किसी दूसरी यक्षिणी ने उस पूर्व यक्षिणी को डांटा और देवप्रभाव से मुनि का ऊरु पुनः उसी स्थान पर जुड़ गया। १२२. अप्रशस्त द्वेष ( नाविक नंद और साधु) नन्द नामक नाविक लोगों को गंगा नदी के आर-पार पहुंचाता था। एक बार धर्मरुचि अनगार नाव में बैठकर गए। तट आने पर अन्यान्य लोग नाविक को भृति (मूल्य) देकर चले गए। अनगार बिना मूल्य दिए जाने लगे। नाविक ने उन्हें रोक लिया। उस गांव की भिक्षा-वेला अतिक्रान्त हो गई। फिर भी नाविक ने उन्हें मुक्त नहीं किया। उस तप्त बालु में वे मुनि भूखे-प्यासे खड़े थे। वे कुपित हो गए। मुनि दृष्टिविषलब्धि से सम्पन्न थे। नाविक की ओर दृष्टि जाते ही वह जलकर भस्म हो गया और मरकर एक सभा में छिपकली बना । संयोग से साधु भी विहार करते-करते उसी गांव में पहुंचे। गांव में भिक्षा ग्रहण कर उस सभा में भोजन करने बैठे। छिपकली उसी कमरे की भित्ति पर थी। उसकी दृष्टि मुनि पर पड़ी। वह क्रोधारुण हो गई। जब मुनि भोजन करने लगे, तब वह ऊपर से कचरा गिराने लगी। मुनि अन्यत्र जाकर बैठे। वहां भी उसने वैसा ही किया। मुनि स्थान बदलते रहे और वह भी वहां जाती रही। मुनि को भोजन करने का स्थान नहीं मिला। मुनि ने छिपकली की ओर देखा और सोचा-'अरे! यह कौन है?' उन्हें याद आया यह तो पापी नाविक नंद है। मुनि ने अपनी दृष्टि से उसको जला डाला। जहां गंगा समुद्र में प्रविष्ट होती है, वह स्थान प्रतिवर्ष बदल जाता है। वह भिन्न-भिन्न मार्ग से बहती है। जो पुरातन मार्ग होता है, वह मृतगंगा कहलाता है। वह छिपकली मरकर मृतगंगा में हंस रूप में उत्पन्न हुई। एक बार मुनि माघ मास में सार्थ के साथ प्रभातकाल में उधर से निकले। हंस ने मुनि को देखा। वह अपने पंखों में पानी भरकर मुनि को सींचने लगा। वहां भी वह हंस जलकर सिंह योनि में अंजनक पर्वत पर जन्मा। एक बार मुनि सार्थ के साथ उधर से विहरण कर रहे थे। सिंह मुनि को देखकर उठा। सारा सार्थ भाग गया। सिंह ने मुनि को पकड़ लिया। मुनि ने उसे जला डाला। वहां से मरकर वह बनारस में एक बटुक बना। मुनि वहां गए और भिक्षा के लिए घूमने लगे। उस समय अन्य बालकों के साथ वह बटुक भी उनको मारने लगा, धूलि फेंकने लगा। मुनि ने रुष्ट होकर उस बटुक को जला डाला। वह बटुक मरकर वहीं का १. (अ) कुछ आचार्य इस कथा के बारे में अपना भिन्न मत प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि एक बार वह मुनि भिक्षा के लिए किसी दूसरे गांव में गया। वहां उस व्यंतरी ने मुनि के रूप को आच्छादित किया और स्वयं मुनि का रूप बनाकर तालाब में स्नान करने लगी। लोगों ने यह देखा और गुरु को जाकर शिकायत कर दी। प्रतिक्रमण के समय उसने गुरु के समक्ष आलोचना की। वह मुनि गुरु के पास पहुंचा और सारा वृत्तान्त बताया, आलोचना की। गुरु ने कहा- 'वत्स! पूरी आलोचना करो।' वह उपयुक्त होकर बोला-'क्षमाश्रमण! मुझे कुछ याद नहीं है।' पुनः पूछने पर मुनि ने कहा- 'मुझे और दोष स्मृति में नहीं है।' गुरु के डांटने पर भी वह यही कहता रहा। तब आचार्य बोले- 'आचार्य अनालोचित का प्रायश्चित नहीं देते।' मुनि ने सोचा- 'आज यह कैसे हुआ?' मुनि को उपशान्त देखकर उस यक्षिणी का मन बदल गया। उसने आचार्य से कहा- 'यह सब मैंने किया था।' यक्षिणी श्राविका बन गई। (ब) आवनि. ५८३, आवचू. १ पृ. ५१४, ५१५, हाटी. १ पृ. २५९, मटी. प. ४९८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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