________________
४५८
परि. ३ : कथाएं एक बड़ा गहन बांस का झुरमुट पार करना होगा। अन्यथा उसमें रहने से अनेक दोष उत्पन्न हो सकते हैं। उसके आगे एक छोटा गढ़ा है, जिसके पास मनोरथ नामक ब्राह्मण सदा बैठा रहता है। वह बोलेगा-'इस गड्ढे को थोड़ा भर दो। उसकी यह बात नहीं सुननी चाहिए क्योंकि वह गड्डा भरने वाला नहीं है। ज्यों-ज्यों वह गड्डा भरा जाता है, त्यों-त्यों बड़ा होता जाता है। उससे गंतव्य मार्ग टूट जाते हैं। इस मार्ग में किम्पाक के पांच प्रकार के फल प्राप्त होंगे, वे आंखों के लिए सुखकर तथा प्रेक्षणीय हैं, परन्तु उनको कोई न खाए। इस पथ पर बावीस पिशाच रहते हैं, जो महाभयंकर और घोर हैं। वे प्रतिफल पथिकों को सताते हैं। उनकी भी परवाह नहीं करनी चाहिए। भक्तपान वहां विरल एवं दुर्लभ है। वहां बिना रुके सतत चलते रहना है। रात्रि में केवल दो प्रहर सोना है और शेष दो प्रहर चलते रहना है। इस प्रकार चलने से ही अटवी को शीघ्र पार किया जा सकेगा। उसको पार कर एकान्त सुखमय शिवपुर नगरी में पहुंचा जा सकता है। वहां किसी प्रकार के क्लेश की उत्पत्ति नहीं होती।
कुछ पथिक उस लौकिक देशिक के साथ ऋजु मार्ग से चले और कुछ वक्र मार्ग से। वह देशिक प्रशस्त दिन देखकर वहां से चला । वह आगे-आगे चलते हुए मार्ग को सम करता और मार्गगत शिलाओं पर मार्ग के गुण-दोष बताने वाले अक्षर उत्कीर्ण करता और यह भी लिखता कि कितना मार्ग तय किया है और कितना शेष है। इस प्रकार उस देशिक के अनुसार चलने वाले पथिक गन्तव्य तक पहुंच गए और जो मार्गगत वृक्षों की छाया में विश्राम करने लगे वे यथासमय वहां नहीं पहुंच पाए। १२१. अप्रशस्त राग-(अर्हन्मित्र)
क्षितिप्रतिष्ठित नगर में दो भाई रहते थे-अर्हन्नक और अर्हन्मित्र। बड़े भाई की पत्नी छोटे भाई में अनुरक्त हो गई। छोटा भाई उसको नहीं चाहता था। वह उसे पीड़ित करने लगी। तब उसने कहा- 'क्या तुम मेरे भाई को नहीं देखती?' उसने अपने पति अर्हन्नक को मार डाला फिर अर्हन्मित्र से बोली- 'क्या अब भी तुम मुझे नहीं चाहोगे? अर्हन्मित्र के मन में इस स्थिति से विरक्ति उत्पन्न हुई और वह प्रव्रजित हो गया। वह भी आर्तध्यान से मरकर कुतिया बनी। साधु उस ग्राम में गए, जहां वह कुतिया उत्पन्न हुई थीं। कुतिया ने मुनि को देखा। वह उसके पीछे लग गई और बार-बार उसका आश्लेष करने लगी। 'यह उपसर्ग है'-ऐसा सोचकर मुनि रात्रि में वहां से विहार कर गए। वह कुतिया मरकर अटवी में बंदरी बनी। एक बार वे मुनि कर्मधर्म संयोग से उसी अटवी के मध्य से गुजर रहे थे। बंदरी ने मुनि को देखा और उनके कंठों से चिपक गई। मुनि बड़ी मुश्किल से छुटकारा पाकर पलायन कर गए। वहां से मरकर वह बंदरी यक्षिणी हुई। उसने अपने अवधिज्ञान से देखा पर वह मुनि के छिद्र नहीं खोज पाई क्योंकि मुनि अप्रमत्त थे। वह पूर्णरूप से मुनि के छिद्र देखने लगी।
काल बीतने पर मुनि के समवयस्क श्रमणों ने उससे कहा- 'अर्हन्मित्र! धन्य हो तुम क्योंकि तुम कुतिया और बंदरी के प्रिय हो।' एक बार वह मुनि गढ़े को पार कर रहा था। उसमें 'पादविष्कंभ' जितना पानी था। उसने पानी को पार करने के लिए पैर पसारे। गतिभेद हुआ तब यक्षिणी ने छिद्र देखकर उसका
१. आवनि. ५८२/१, आवचू. १ पृ. ५०९-५११, हाटी. १ पृ. २५६, २५७, मटी. प. ४९४, ४९५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org