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आवश्यक नियुक्ति
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की अनुमति दूंगी।' यह सुनकर ऋषि रुष्ट हो गया। उसने दोनों हाथों से दोनों पक्षियों को पकड़ लिया और अपने पाप के बारे में पूछने लगा। पूछने पर वे पक्षी बोले-'महर्षे ! तुम अनपत्य हो।' ऋषि ने स्वीकृति दी
और वह क्षुब्ध हो गया। तापसभक्त देव श्रावक बन गया। इधर ऋषि जामदग्निक अपनी आतापना को छोड़कर मृगकोष्ठक नगर में गया। वहां जितशत्रु राजा राज्य करता था। ऋषि को देखकर राजा अपने आसन से उठा और पूछा- 'महर्षे! आपको क्या दूं?' ऋषि बोले-'अपनी पुत्री दो।' राजा बोला-'मेरी सौ पुत्रियां हैं, जो आपको पसंद आए उसे ले जाओ।' ऋषि कन्याओं के अन्त:पुर में गया। ऋषि को देखकर कन्याओं ने थूका और कहा- 'लज्जा नहीं आती इस प्रकार आते हुए।' यह सुनकर ऋषि ने सबको कुब्जा बना डाला।
राजा की एक कन्या धूल में खेल रही थी। ऋषि ने उसको एक फल देते हुए कहा- 'क्या तुम इसे लेना चाहोगी?' उस कन्या ने हाथ फैलाए। ऋषि उसको लेकर चलने लगा। सारी कुब्जा कन्याएं आकर ऋषि से बोली- 'आप अपनी सालियों को पुनः रूप दें, मूल की स्थिति में ले आएं।' ऋषि ने सबको मूलरूप में परिवर्तित कर दिया। तब से उस नगर का नाम कन्याकुब्ज हो गया। ऋषि उस छोटी कन्या को लेकर आश्रम में पहुंचा। उसके साथ गाएं-भैंसे तथा दास-दासी भी गए। वह कन्या वहां बड़ी हुई और जब वह यौवन को प्राप्त हुई तब उसके साथ ऋषि ने विवाह कर लिया। एक बार जब वह ऋतुधर्मा हुई तब जामदग्निक ने उसे कहा- 'मैं तुम्हारे 'चरुक' करूंगा, जिससे तुम्हारा जो पुत्र होगा वह ब्राह्मणों में प्रधान होगा।' उसने स्वीकार कर लिया। उसने ऋषि से कहा-'मेरी बहिन हस्तिनापुर में अनन्तवीर्य की पत्नी है। उसके लिए भी क्षत्रिय चरुक करें।' ऋषि ने वैसा ही किया। तापसपत्नी ने सोचा- 'मैं तो जंगल की मृगी हो गई। मेरा पुत्र ऐसे ही नष्ट न हो जाए', यह सोचकर उसने क्षत्रियचरुक को खा लिया और अपनी बहिन के लिए दूसरा भेजा। दोनों के पुत्र हुए। तापस-पत्नी के पुत्र का नाम राम और दूसरी के पुत्र का नाम कार्तवीर्य रखा गया।
राम आश्रम में बढ़ रहा था। एक बार एक विद्याधर वहां आया। राम उसके साथ लग गया। उसने विद्याधर की परिचर्या की। विद्याधर ने प्रसन्न होकर उसे 'परशुविद्या' दी। उसने उसे सिद्ध कर ली। ऋषिपत्नी रेणुका अपनी बहिन के घर गई। वह राजा में अनुरक्त हो गई। उससे उसके पुत्र हुआ। जमदग्नि पुत्र के साथ ही रेणुका को आश्रम में ले आया। राम ने रुष्ट होकर रेणुका को पुत्रसहित मार डाला। उसने आश्रम में ही रहकर धनुःशास्त्र सीखा था। रेणुका की बहिन (राजा की पत्नी) ने बहिन की मृत्यु का वृत्तान्त सुना। उसने राजा से कहा। राजा आश्रम में आया और उसको नष्ट-भ्रष्ट कर गायों को लेकर चला गया। राम को यह बात ज्ञात हुई। उसने राजा का पीछा कर, उसे परशु से मार डाला। कार्तवीर्य राजा बना। उसकी रानी का नाम तारा था। एक बार उसे पिता की मृत्यु का वृत्तान्त बताया। कार्तवीर्य ने आकर जमदग्नि को मार डाला। राम को यह ज्ञात हुआ तो उसने जलते हुए परशु से कार्तवीर्य को मार डाला और स्वयं राजा बन गया। इधर वह तारा देवी संभ्रम से पलायन कर आश्रम में आई। उसका गर्भ मुख की ओर से नीचे आकर गिरा। उसका नाम सुभूम रखा गया। राम का परशु जहां-जहां क्षत्रिय को देखता, वह जलने लग जाता। एक बार राम तापस आश्रम के पास से गुजर रहा था। परशु जल उठा। तापसों ने कहा- 'हम क्षत्रिय नहीं हैं।' राम ने सात बार पृथ्वी को निःक्षत्रिय कर डाला अर्थात् पृथ्वी से सभी क्षत्रियों को मार डाला और उनके जबड़ों से थाल
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