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________________ ४४६ परि. ३ : कथाएं को देकर उसके लालन-पालन का भार सौंपा। वह वहीं बढ़ने लगा। बड़े का नाम राजललित और छोटे का नाम गंगदत्त रखा गया। बड़े भाई को जो कुछ मिलता, वह छोटे भाई को भी देता था। मां को छोटा भाई अप्रिय लगता था। वह जहां भी उसे देखती लकड़ी, पत्थर आदि से पीटने लग जाती। एक बार इन्द्रमहोत्सव का अवसर था। घर में कोई नहीं था। पिता अपने उस छोटे पुत्र गंगदत्त को घर लाकर उसे पर्यंक के नीचे बिठा कर भोजन देने लगा। एक बार उसे पर्यंक से बाहर निकाला। मां ने उसे देख लिया। उसने हाथ पकड़कर उसे खींचा और शौचालय में डाल दिया। तब वह रोने लगा। पिता ने उसे वहां से निकाला और स्नान कराया। इतने में ही एक मुनि भिक्षा के लिए वहां आ पहुंचे। श्रेष्ठी ने मुनि से पूछा- 'भगवन् ! क्या माता के लिए भी पुत्र अनिष्टकारी होता है?' मुनि बोले-'हां, होता है।' श्रेष्ठी ने पूछा-'कैसे?' मुनि बोले- 'जिसे देखकर क्रोध बढ़ता है, स्नेह क्षीण होता है तो जानना चाहिए कि वह पूर्व जन्म का वैरी है। जिसे देखकर स्नेह बढ़ता है और क्रोध क्षीण होता है तो जानना चाहिए कि वह पूर्व जन्म का बंधु है।' तब श्रेष्ठी बोला-'भगवन्! आप इसे प्रव्रज्या दे दें।' मुनि ने स्वीकार कर उसे दीक्षित कर दिया। भाई के स्नेहानुराग से उसका बड़ा भाई राजललित भी उसी आचार्य के पास प्रव्रजित हो गया। दोनों मुनि ईर्यासमिति का सम्यक् पालन करते हुए अनिश्रित तप में संलग्न हो गये। एक बार छोटे भाई ने निदान किया- 'यदि इस तपस्या और संयम का कोई फल है तो भविष्य में मैं जन-मन को आनन्द देने वाला बनूं।' वह घोर तपस्या कर देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहां से च्युत होकर वह वसुदेव का पुत्र वासुदेव बना और दूसरा बलदेव हुआ। इस प्रकार गंगदत्त ने व्यसन-कष्ट से सामायिक प्राप्त की। १०९. उत्सव से सामायिक की प्राप्ति एक प्रत्यंत ग्राम में आभीरों की बस्ती थी। वे साधुओं के पास धर्म सुनते थे। एक बार साधुओं ने देवलोक का वर्णन किया। आभीरों की धर्म में सुबुद्धि थी। एक बार इन्द्रमह अथवा अन्य उत्सव के दिनों में वे आभीर नगरी में गए। वह नगरी द्वारिका जैसी थी। वहां उन्होंने लोगों को विचित्र वेशभूषा में मंडित, प्रसाधित और सुगंधित रूप में देखा। उनको देखकर वे परस्पर बोले-'साधुओं ने जो देवलोक का वर्णन किया था, वह यही है। हम भी सुन्दर कार्य करेंगे और देवलोक में उत्पन्न होंगे।' वे साधुओं के पास जाकर बोले- 'आपने जो देवलोक का वर्णन किया था, उसे हमने प्रत्यक्ष देख लिया है।' साधुओं ने कहा'देवलोक वैसा नहीं होता। वह दूसरे प्रकार का होता है। वह इससे भी अनन्तगुना अधिक सुन्दर होता है।' तब वे आभीर अत्यंत विस्मित हुए और मुनि के पास प्रवजित हो गए। ११०. ऋद्धि से सामायिक की प्राप्ति (दशार्णभद्र) ___ दशार्णपुर नगर में दशार्णभद्र राजा राज्य करता था। उसके अन्तःपुर में पांच सौ रानियां थीं। वह राजा रूप, यौवन, सेना और वाहनों से प्रतिबद्ध होकर यह सोचता था कि जो मेरे पास है, वैसा दूसरों के पास नहीं है। एक बार भगवान् महावीर दशार्णकूट पर्वत पर समवसृत हुए। राजा ने सोचा- 'मैं कल भगवान् १. आवनि. ५४७, आवचू. १ पृ. ४७४, ४७५, हाटी. १ पृ. २३८, २३९, मटी. प. ४६७, ४६८ । २. आवनि. ५४७, आवचू. १ पृ. ४७५, हाटी. १ पृ. २३९, मटी. प. ४६८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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